वो लोग… बहुत सलीके से तोड़ते हैं,
बातों में मिठास रखकर, निगाहों में खालीपन लेकर।
वो कभी सीधे वार नहीं करते,
बस थोड़ा-थोड़ा हटते हैं —
जब तक तुम अकेले गिर न जाओ।
वो कहते हैं, “मैंने कुछ कहा भी तो नहीं था”,
और तुम सोचती रह जाती हो —
शब्द नहीं थे, पर सन्नाटा तुम्हारी छाती चीर गया था।
वो लोग ऐसे होते हैं —
जो दर्द देकर भी ख़ुद को बेचारा बताते हैं,
और तुम्हें — संवेदनशील, ज़्यादा सोचने वाली,
या ‘dramatic’ क़रार दे देते हैं।
वो खुद को आईना समझते हैं,
और तुम्हें धुँध —
क्योंकि तुम्हारा रोना,
उनकी कहानी में फिट नहीं बैठता।
और जब तुम थककर, टूटकर, दूर होने लगती हो,
तब वो कहते हैं —
“बताओ न, आख़िर मैंने किया ही क्या है?”
ये सवाल नहीं होता,
ये आरोप होता है —
कि तुम ही ग़लत हो,
तुम ही कमज़ोर हो,
तुम ही ‘ज़्यादा’ महसूस करती हो।
वो लोग… वही होते हैं,
जो अपनी मासूमियत से तुम्हें गुनहगार बना देते हैं।