👉 बह्र - बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम मुज़ाइफ़
👉 वज़्न - 212 212 212 212 212 212 212 212
👉 अरकान - फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
जिंदगी हो बसर सँग तेरे सनम चाह दिल की ये दिल में दबी रह गई
छोड़ कर जाने वाले बता तो सही चाहतों में मिरी क्या कमी रह गई
मेरी चाहत का उसने सिला ये दिया गम दिए दर्द-ए-दिल नाम मेरे किया
चूर अरमान दिल के सभी हो गए मेरी आँखों में बाकी नमी रह गई
दूर थे जब तलक पास लगते थे तुम पास आते ही तुम दूर होने लगे
आते-आते बहारें खिजाँ आ गई मिलते-मिलते मुझे हर ख़ुशी रह गई
हाल-ए-दिल क्या सुनाऊँ मैं यारो तुम्हें जिसको चाहा था दिल से न मेरा हुआ
हो गया गैर का बे-वफ़ा वो सनम मेरे हिस्से में बस शायरी रह गई
आज दौलत को रब मानते हैं सभी अब कोई क़द्र रिश्तों की करता नहीं
मिलके रहते थे सब लोग पहले यहाँ अब कहाँ बात वो पहले सी रह गई
जाते-जाते वो खुशियाँ सभी ले गया हमको सारे जहाँ का वो गम दे गया
हमनें आवाज़ दी वो रुका ही नहीं बेबसी बस खड़ी देखती रह गई
दिल लगाया तो जाना मुहब्बत है क्या कुछ नहीं इश्क़ बस ख़ुद-कुशी के सिवा
दिल के जख्मों ने जीने न हमको दिया जिंदगी भी थमी की थमी रह गई
सँग तेरे सनम 'शाद' रहते थे हम ज़ीस्त लगती नहीं थी ये जन्नत से कम
दूर तुम हो गए जब मुझे छोड़ कर जिंदगी फ़िर कहाँ जिंदगी रह गई
©विवेक'शाद'