कब दिल ने आख़िरी बार
अपनी मर्ज़ी से धड़कने की ज़िद की थी,
याद नहीं…
कब ख़्वाहिशों ने हथियार डाले,
कब सपनों ने हाथ उठा दिए,
कब जिम्मेदारियों ने मोर्चा संभाल लिया,
पता ही नहीं चला।
कभी माँ की दवा की पुड़िया में,
कभी बच्चों की फीस की पर्ची में,
कभी हिसाब की मोटी किताबों में,
तो कभी आधी रात की करवटों में,
दिल ने कई बार छुट्टियों की अर्जी दी
पर मंज़ूर कभी नहीं हुईं।
कई बार सोचा—
बस एक दिन, एक शाम,
जहाँ साँसें खुद को सुन सकें,
जहाँ धड़कनें अपना नाम पुकार सकें,
जहाँ कोई एक ख़्वाब,
जो बरसों पहले अलमारी में रख दिया था,
दोबारा खोलकर देख सकूँ…
मगर हर सुबह
उसी परेड पर लौटना पड़ा।
आज जब आईना देखा,
तो वहाँ कोई और खड़ा था—
बिना वर्दी, बिना तमगे,
बिना किसी शिकायत के,
पर उसकी आँखों में सन्नाटा तैनात था।
रात के अंधेरे में कभी-कभी
एक जानी-पहचानी आवाज़ गूंजती है—
“हम थे… कभी थे…
अब नहीं हैं।”
- इक़बाल सिंह “राशा”
मानिफिट, जमशेदपुर, झारखण्ड