"मैं पंछी तेरे आँगन की" एक अत्यंत भावनात्मक रचना है, जो एक बेटी की अंतरात्मा से निकली उस गूंज को स्वर देती है, जिसे वह अपने दिल में छुपाकर विदा होती है। यह कविता केवल कुछ शब्दों का क्रम नहीं, बल्कि उस पूरी यात्रा का प्रतीक है जो एक बेटी अपने मायके से ससुराल तक तय करती है — एक ऐसा पड़ाव, जहाँ वह बचपन को पीछे छोड़कर नए जीवन की ओर उड़ान भरती है, लेकिन उस उड़ान में भी आँगन की मिट्टी की महक, माँ की गोद की ऊष्मा, और पिता की चुप्पी में छुपा प्यार उसके साथ रहता है।
इस रचना की विशिष्टता केवल इसकी भावनात्मक गहराई नहीं, बल्कि इसका रचयिता भी है — अभिषेक मिश्रा, जो पुरुष होकर भी स्त्री-हृदय की गहराइयों तक जाकर लिखते हैं। यह तथ्य स्वयं में एक सशक्त सन्देश है:
संवेदनाएं किसी लिंग की मोहताज नहीं होतीं।
एक ऐसे समाज में जहाँ अक्सर माना जाता है कि माँ-बेटी, विदाई और ममता जैसे विषयों पर लिखने के लिए एक महिला की अनुभूति आवश्यक है, अभिषेक मिश्रा ने इस रूढ़ धारणा को अपनी कलम से तोड़ा है। उन्होंने नारी-मन की पीड़ा, उसकी निस्वार्थ ममता, और उसके भीतर छिपी असंख्य अनकही भावनाओं को इतने सटीक और सहज ढंग से व्यक्त किया है, मानो वे स्वयं उस पंछी के मन को जी चुके हों।
इस कविता को लिखने का कारण भी गहरा है।
अभिषेक मिश्रा ने समाज में बेटियों की भूमिका, उनके त्याग और उनके भीतर की अनकही भावनाओं को महसूस किया — और उन भावनाओं को शब्द देने का निर्णय लिया। यह कविता सिर्फ एक रचनात्मक प्रयास नहीं, बल्कि एक संवेदना की श्रद्धांजलि है हर उस बेटी को, जो बिना कहे बहुत कुछ छोड़ आती है।
"मैं पंछी तेरे आँगन की" उन सभी पाठकों के हृदय को छूने में सक्षम है, जिन्होंने बेटी को केवल एक रिश्ता नहीं, एक अनुभव के रूप में जिया है।
"मैं पंछी तेरे आंगन की..."
मैं पंछी तेरे आंगन की,
तूने उड़ना सिखाया था।
तेरे प्यार की छांव तले,
बचपन हँसना सिखाया था।
फिर आया दिन वो सांझ भरा,
जब विदाई का वक्त था अश्रु धरा।
कांपते पाँव, मुस्काती आँखें,
दिल के भीतर सिसकती साँसें।
डोली में बैठी थी ख़ामोशी सी,
हर हँसी के नीचे थी एक उदासी सी।
पीछे छूटा वो कंचों का खेल,
सामने था अब जीवन का रेल।
ससुराल की देहरी पर रखे पाँव,
पीछे छूटा हँसी का गाँव।
चेहरे नए, रिश्ते भी अनजान,
दिल बोले — “क्या यही है पहचान?”
भाई की चिढ़, माँ की डाँट,
सब अब मीठी लगती है।
वो रोटियों की छोटी बातें,
अब आँखों से बरसती हैं।
तू कहता था — उड़ जा बेटी,
सपनों का कोई घर होगा।
क्या जानती थी ये उड़ान,
इतनी भारी सफर होगा।
माँ से लड़कर मैं चली आई,
सास की बातें अब क्या कहूँ?
कभी बेटी थी, अब बहू हूं,
कभी अपनी थी, अब पराई हूं।
यहाँ ताने हैं, कुछ चुप्पियां हैं,
हर दिन खुद से भिड़ती हूं।
सास की तीखी बातों में भी,
माँ का धैर्य मैं ढूंढ़ती हूं।
बदला लहजा, बदला व्यवहार,
मैं ढूँढती रही वो पुराना प्यार।
हर तीज-त्यौहार में खोई मैं,
पर मुस्कान ओढ़े रोई मैं।
मायके की मिठास अब याद बनी,
मन की बात अब जज्बात बनी।
जो आँगन था मेरी उड़ान का,
अब बसता है मेरे अरमान का।
देवर की हँसी में अक्सर,
भाई की मासूमियत ढूँढती हूं।
ननद के तानों में छुपकर,
बहन की छाया सी जीती हूं।
ससुराल का हर कोना कहता,
अब ये तेरा संसार है।
पर मन अब भी दौड़ता मायके,
जहाँ हर ग़लती भी स्वीकार है।
तेरे आँचल से बंधी थी मैं,
अब नए रिश्तों में उलझी हूं।
दिल पूछे रोज़ आईने से —
"क्या अब भी वही बेटी हूं?"
मैं बहू सही, पर बेटी भी हूँ,
टूट कर भी कभी न हटी भी हूँ।
हर घर की एक कहानी हूँ मैं,
तेरे आंगन की निशानी हूँ मैं।
"मैं पंछी तेरे आंगन की,
पर अब तिनके और हैं।
तेरे प्यार की तलाश में,
अब सास के आँचल से लड़ती हूं…"

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




