इतना कुछ जल चुका हूँ, फिर भी धुआँ नहीं हूँ मैं,
तूने जो राख समझा — दरअसल चिता नहीं हूँ मैं।
मैं मौन था, मगर तूने मरा हुआ समझ लिया,
ओ बेख़बर! जला हूँ, मगर बुझा नहीं हूँ मैं।
मेरे सवाल तुझसे तेरे जवाब माँगते हैं,
क्योंकि अब तेरे इरादों से डरा नहीं हूँ मैं।
जिसे तूने “हार” कहा, वो तो मेरी आँख थी,
जिससे तेरे फ़रेब को रोज़ पढ़ा नहीं हूँ मैं?
तूने जो खेला मेरे वजूद से, वो तेरा भ्रम था,
मैं किरदार नहीं तेरी कहानी का — कटा नहीं हूँ मैं।
छालों से पटा पड़ा है हर हिस्सा मेरी रूह का,
मगर इस आग को अब तक थमा नहीं हूँ मैं।
सोचता हूँ कभी-कभी — क्या मैं अब भी इंसान हूँ?
फिर याद आता है — तुझसा बना नहीं हूँ मैं।
अब जो जल रहा हूँ तो रोशनी बाँटूँगा,
तेरी तरह जलकर राख बना नहीं हूँ मैं।