मन को कितना भी बहलाया,
शांति मगर न पाई रे।
मृगतृष्णा-सा दौड़ रहा हूँ,
थकन बनी परछाई रे॥
धन-संपदा, मान-मर्यादा,
सपनों का व्यापार हुआ।
पर सेवा बिन, प्रेम बिना,
सूना जीवन-द्वार हुआ॥
महल खड़ा, वैभव पाया,
सिंहासन भी सजा लिया।
पर दिल रीता, प्रेम न पाया,
तो सब कुछ ही गँवा दिया॥
माया के इस मायाजाल में,
क्यों भूला भगवान रे?
बिन सेवा, बिन भक्ति, जीवन,
सूखी रेत समान रे॥
छोड़ छलावा, छोड़ दिखावा,
प्रेम-दीप अब जलाना है।
प्रभु चरण में शीश झुकाकर,
सेवा-पथ अपनाना है॥
-इक़बाल सिंह “राशा”
मनिफिट जमशेदपुर झारखण्ड