ढोंग क्यों कर रहे सारे, ये मुखौटे क्यों पहने हैं?
भीतर जो हैं टूटे-फूटे, बाहर झूठी चेतनाएँ हैं।
हँसी में चुभन है, बातों में जाल है,
सच्चाई की जगह अब छल का सवाल है।
दिखावे की इस भीड़ में, कौन असली रह गया?
आईनों में भी अब चेहरों का सच बह गया।
कर्म करुणा से नहीं, अब दिखावे से चलते हैं,
पूजा भी अब तस्वीरों से ज़्यादा पोस्टों में पलते हैं।
संन्यासी भी मंच खोजे, त्याग में अब स्टेटस है,
मौन भी अभिनय हो गया, साधना अब प्रेसेंस है।
हर आँख में आँसू हैं, पर वो भी रोल का हिस्सा हैं,
दिल तड़पते हैं पर शब्दों में सिर्फ़ किस्सा है।
भीतर की आग से डर कर सबने राख ओढ़ ली,
अब न कोई जले, न उजाले की बात हो ली।
ढोंग क्यों कर रहे सारे, क्या डर है इस जीवन में?
क्या सच की जगह नहीं, इस नकली हर क्षण में?
कभी तो कोई चीखेगा, ये चुप्पियाँ टूटेंगी,
कभी तो ये मुखौटे, इंसानियत से रूठेंगी।
उसी दिन होगा सूरज का असली उदय इस धरा पर,
जब सच्चा इंसान मिलेगा – ना मंच पर, ना पर्दा पर।
– शारदा

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




