चांद मंगल शुक्र जैसे ; दूरस्थ - ग्रहों पर,
ढूंढ रहा है इंसान ; आवासीय - जमीन,
धरती पक्षधर ; इंसान तेरे पलायन की,
जल्दी जा पगले ; कर दे मुझे स्वाधीन,
सर्वस्व तेरे अर्पण ; तू निकला जालिम ,
मिट्टी-पत्थर खा गया ; तू सांप-आस्तीन,
प्राकृतिक-संसाधन अथाह;जीने के लिए,
तेरे लालच की भरपाई ; है क्लिष्ट-संगीन,
हर पल पछताएगा तू ; उज्जड़ - बस्ती में,
याद आएगा तुझे;धरा का जीवन-लवलीन,
संभल जा अभी वक्त है ; कुछ सब्र तो कर,
बरना कर देगा तू ; ब्रह्माण्ड मानव-विहीन !
✒️ राजेश कुमार कौशल,
[हमीरपुर,हिमाचल प्रदेश]