आख़िर कब तक रखते हम, ख़्वाबों को संभाल के..
कोई तो समझाता उसूल हमको, वक्त की चाल के..।
हम तो रहे थे उम्र–भर, एक खुली क़िताब की तरह..
क्यूं मेरे आंसुओं को ज़माने ने बताया, घड़ियाल के..।
ठोकरों ने ही हर सबक सिखाया हमको किसी तरह..
उम्र गुजारी वो भी हमने किसी तरह बगैर इक़बाल के..।
उनके पास हमारे हर दर्द–ओ–गम का हिसाब मिला..
जाने हम कुछ अजीब थे, कि जाने वो थे कमाल के..।
हर क़दम पर छुपा हुआ है, वक्त शिकारी के भेष में
पावों में जकड़े हुए हैं फंदे, किसी ना किसी जाल के