गिरा हूँ! उठकर, फिर संभलना है,
लँगड़ाते-लँगड़ाते ही सही चलना है।
दुनिया भर की हवाएँ मेरे खिलाफ,
इनको जलाने के वास्ते, जलना है।
वो आँखें जो मुझे देख चिढ़ती थीं,
उन आँखों में मुसलसल खलना है।
कमजोर समझ करते रहे अपमान,
उनकी, हल्की सोच को बदलना है।
हैं ताक में, फन फैलाए डसने को,
उन साँपों के फनों को कुचलना है।
🖊️सुभाष कुमार यादव