चेहरे के पीछे जो रोता है,
वो ही तो सच में होता है।
हँसते लब हैं, दिल भीगा सा,
ये कैसा पानी होता है?
भीड़ में रहकर तन्हा रहना,
ख़ुद से हर पल लड़ते रहना,
कोई नहीं समझता उसको,
जो ख़ामोशी में रोता है।
रात की चादर ओढ़े दिल ने,
सपनों से रिश्ता तोड़ा है,
नींदें पूछ रही हैं मुझसे—
“किस ग़म ने तुझको ओढ़ा है?
मास्क लगाए हर चेहरा,
अपने भीतर टूटा है,
सच बोलोगे तो मर जाओ,
झूठ यहाँ पर जीता है।
जो सच कह दे, वो पागल है,
जो चुप है, वो संजीदा है,
इस दुनिया में बस वो सच्चा—
जो ख़ुद से हर दिन जीता है।
आँखों में आँसू रखने वाले,
अक्सर बेज़ुबां होते हैं,
सुनता कोई नहीं उन्हें जो
दिल में दरिया बोते हैं।
ये ग़ज़ल नहीं, इक पुकार है,
उस आत्मा की जो हार है।
पर हार के भी शांत है वो,
क्योंकि अब वो बस “पार” है।