औरत तेरी भी अजीब कहानी है
इस पितृसत्तात्मक समाज में
तू कल भी खिलौना थी तू आज़ भी।
एक मर्द तुझसे हीं शरीर पाता
तेरे हीं शरीर में पलता
फिर तेरी हीं ज़वानी खाता
और फिर तुझपे हीं अकड़ दिखाता।
एक पिता अपनी बेटी को अकेला
देख घबड़ा जाता है और वही पिता
फिर एक दिन सैकड़ों लोगों के बीच में
अपनी बेटी को किसी और को
सौंप देता है और खुशी खुशी अपनी सारी
कमाई भी।
फ़िर वहीं औरत हमेशा के लिए न जाने कितने अनजान लोगों के बीच पीसी जाती
और ससुरालियों के यहां मौज मस्ती की
समान समझी जाती।
युग बदला ज़माना बदला पर औरत
वहीं की वहीं रही उन्हीं हालातों में
बनते बिगड़ते जज्बातों में।
बस फ़र्क इतना हीं है कि औरत के
शोषण के कलेवर बदल गए
आधी आबादी कभी भी पूरी ना हो सकी है
बस नाम के लिए जीवन की धुरी बना रख्खी है।
सारे अधिकार पुरुषों को हीं समर्पित है
सब कुछ पाकर भी आज के समाज में
औरत पुरुष के सामने कहीं भी ना
टिकती है।
सबको जनमाने वाली पालने पोसने वाली
खुद शोषित वंचित रहती है।
पत्रिसत्तात्मक समाज में औरत सिर्फ खिलौना बन के रहती है।
सबकुछ पाकर भी कुछ भी ना पाती है
सिर्फ़ शोषित उपेक्षित दबाई जाती है।
और सच तो ये है कि.......
भला एक क़बील औरत कहां किसी मर्द को भाती है ....
भला एक क़बील औरत कहां किसी मर्द को भाती है...