आज फिर आ गया तेईस मार्च,
याद ताजा कराने मात्र।
तेईस साल की उम्र में ऐसे-ऐसे साहसिक कार्य,
असेंबली पर निडरता से बम फेंकना।
सर नत मस्तक कर जाता है,
देश की आजादी के लिए वरमाला की जगह फाँसी के फंदे को चूम,
गले लगाना सोच कर दिल सिहर जाता है।
भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव,
तीनों में होड़ लगी हंसते-हंसते,
पहले कौन फाँसी की तख़्ती पर जाता है।
लेकिन मन में एक सवाल है,
जिस देश की आजादी के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी दी गई,
वो सार्थक तो हुई मगर हम इतने और इतने आजाद हो गए,
हम कि लगता है सारी पाबंदियाँ हट गई।
आज़ादी को शायद निरंकुशता समझा गया,
तभी तो आए दिन ख़ून की होली,
भाईचारे में हीं होंने लगी,
बहू-बेटियाँ असुरक्षित रहने लगी।
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई,
हम सब है भाई-भाई मात्र कहने को रह गया,
कहने को समाजवादी आचरण व्यक्तिवादी हो गया,
दोहरे चेहरे वाले मजे में जी रहे।
मानवता शब्द धीरे-धीरे शब्दकोश से हीं उड़ रहे,
इंसान मरता है आत्मा नहीं,
तो ज़ाहिर है इसी कायनात में यह सब देखकर,
आपकी आत्मा दुःखी हो रही होगी,
ख़ून के आँसू टपक रहे होंगें।
तो काश ऐसा होता कि जैसे स्वाति नक्षत्र में,
पानी की बूंद सीप में जाते ही मोती बन जाता है,
वैसे हीं आपके ख़ून का एक-एक बूंद हर एक के ज़ेहन में टपक जाए,
तो आप जैसे कितने क्रांतिकारी पैदा हो जाए।
और तब वास्तव में ये देश रंगीला हो जाए,
हर ख़ून में वही जज़्बा आ जाए।
लेकिन काश तो काश होता है,
सिर्फ़ आज का दिन याद कर आँखें नम हो जाती है,
तो दिल से आवाज़ आती है,
इंकलाब ज़िन्दाबाद,
भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव लाल सलाम,लाल सलाम।