कुछ ढूंढ रही हूं
रोज गुजरते दिन के साथ
एक आस बांध रही हूं
कि शायद जो उलझी लकीरों में छुपा है
वो सुलझ सामने आए
सब बदल रहा है
जिसे बदलते देख, मैं उसे किस्मत कह रही हूं
कभी कर्म कह दिया
कभी उसका फल कह दिया
पर क्यों वो ढूंढ ही नहीं पा रही
जो हकीकत है
क्यों उलझी है मेरी लकीरे इतनी
कि जो अब अपने साथ
मेरे जज्बातों को भी उलझा रही है
क्यों मेरे सपनों की बेड़ियां बन
बस थाम रही है मेरे आगे बढ़ते कदमों को
क्यों इनसे निकलना मुश्किल है
क्यों नही पहुंचने दे रही ये मुझे वहां
जो मुझे मुझसे मिलने दे
अब तो खुद को भी भूला जा रहा है
क्योंकि ना बंधन टूट रहे हैं
ना पांव में पड़ी बेड़ियों को तोड़
आगे बढ़ पाने की हिम्मत जुट रही है
अब सब छूट रहा है
मैं छूट रही हूं
मेरा किरदार छूट रहा है
बस कभी खुद को ढूंढने की उम्मीद में
एक पहचान देखी थी अपनी
पर आज सब छूट रहा है
मैं, मेरा देखा खूबसूरत कल
और मेरी नाम को बनाती मेरी पहचान
सब जिम्मेदारी के तले छोड़
अपनी ख्वाहिशें अपनी पहचान भूल रही हूं
सब छोड़ रही हूं,
जो मन तो भाया वो हमेशा छूटा मुझसे
मेरी कलम छूट गई और छूट गई उससे मिली
मुझे मेरी अनमोल पहचान
जो अब खतम हो कहीं गुम सी गई
और छीन गई मेरे नाम को नाम बनाने की
मेरी पहचान.