शुरुआती दौर में पुरुष जब किसी स्त्री से प्रेम करते हैं तो अपना 100 नहीं 1000% उस स्त्री को देने की कोशिश करते हैं ...
उसे क्या पसंद है क्या नापसंद ..
हर बात का ख्याल रखते हैं ..
उसकी हर छोटी से छोटी जरूरत पूरा करने में बड़े से बड़े प्रयास करने से चूकते नहीं हैं....
जबकि शुरुआती दौर स्त्री के लिए बड़ा असमंजस भरा होता है ....
वो प्रेम और आकर्षण के स्वरूप को समझने में बड़ा वक्त लेती है....
शुरुआती दौर में पुरुष का प्रेम ज्वार भाटे की तरह होता है ...जो समय और कामों के साथ व्यवस्थित होता चला जाता है ...
जबकि स्त्री का प्रेम नदी की शांत धारा की तरह होता है समय के साथ अपनी वेग धारा निरंतर बढ़ाती जाती है....
धीरे ~धीरे पुरुष का प्रेम शांत होने लगता है ...
और स्त्री का प्रेम शांत नदी से निकल कर अपनी पराकाष्ठा के उच्चतम स्तर पर अलकनंदा के जैसे वायु वेग में परिवर्तित हो जाती है ....
फ़िर शुरू होता है दोनों के बीच अनायास ही आए इस परिवर्तन पर आरोप प्रत्यारोप .....
स्त्री समझ नहीं पाती जो पुरुष अपना सर्वस्व उसे दिया करता था वो अब तन्हा क्यों हो रहा? ...
समझने की जरूरत छोड़ो मगर जानो प्रेम तो प्रकृति की सबसे खूबसूरत रचना है इसका सम्मान कीजिए।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद