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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra The Flower of WordThe novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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कविता की खुँटी

                    

बिखरा हूँ मैं, ताश के जैसे ( भाग - 2 ) - अशोक कुमार पचौरी

बिखरा हूँ मैं, ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ, लाश के जैसे

कितना समझाया, प्यार मैं तुझको

तूने मोल ना जाना, मेरी बातों का

थे शिकवे और, थे गिले बहुत

क्या करूँ मेरे जज्बातों का ?

दफनाए हैं जेहन में ऐसे

शमशान मैं लाश के जैसे

बिखरा हूँ मैं ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ लाश के जैसे

तेरे लिए जो लिखता था मैं

प्यार भरे होते थे नगमे

जिनको लिखकर में खुश होता

पढ़कर तू खुश हो जाती थी

उन नगमों को हुआ यह क्या है ?

हैं कड़वे तेरी बात के जैसे

बिखरा हूँ मैं ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ लाश के जैसे

बात - बात में बात का कहना

पहन के तू जज्बात का गहना

कितनी बार कहा था तुझसे

बतला दे मेरी खता तो क्या है?

हर बार तो चुप ही थी तू

बिन गद्दी सरताज के जैसे

बिखरा हूँ में ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ लाश के जैसे

है आज भी मुझको क़द्र तेरे

उन बेबाकी जज्बातों की

जिन की खातिर दफ़न मेरे

दिल में दिल के अरमान हुए

तू गरजी थी बादल के जैसे

बरसी थी बरसात के जैसे

बिखरा हूँ मैं ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ लाश के जैसे

काश निकलता छाता लेकर

बेमौसम बरसातों में

यूँ ना तनहा रोया होता

ऐसी काली रातों में

क्या तू मुझको बतलायेगी?

इन रातों का करूँ मैं क्या?

तूने पन्ने पलटे ऐसे

फटी हुई किताब के जैसे

बिखरा हूँ मैं ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ लाश के जैसे

कैसे करूँ मैं दर्द बयां

सोचता ही रहता हूँ

कम्बख्त नाम आता है तेरा

दर्द में दर्द की बातों में

माना तूने इकरार किया

पहले मैंने इजहार किया

तूने बातों से वार किया

आज तेरी बातें मुझे चुभी थी ऐसे

दिल में चुभी कोई फांस के जैसे

अटकी हुई कोई सांस के जैसे

बिखरा हूँ मैं ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ लाश के जैसे

कहती है तू प्यार है मुझसे

कहना मेरा बेकार है तुझसे

प्यार तू करती है ले माना

फिर क्यों देती है तू ताना

तेरे लफ्ज़ो में होती ख़ामोशी है

और ख़ामोशी में पास न आना

दूर होती है मुझसे ऐसे

अंतरिक्ष में आकाश के जैसे

बिखरा हूँ मैं ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ लाश के जैसे

लोग मारते, कुछ तो पत्थर

कुछ पत्थर, ठुकरा देते हैं

जां लेने पर, तुले हो मेरी

लो हम खुद ही, जां देते हैं

जख्म हरे मेरे, घास के जैसे

बिखरा हूँ मैं, ताश के जैसे

जिन्दा तो हूँ, लाश के जैसे

Originally published at : https://www.amarujala.com/kavya/mere-alfaz/ashok-pachaury-im-scattered-like-a-card-part-2


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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (2)

+

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' said

It is feeling good to introduce the second part of बिखरा हूँ मैं, ताश के जैसे "https://likhantu.com/article/ashok-pachaury-im-scattered-like-a-card", if you have not read it previously you can follow the link above and read that.

वेदव्यास मिश्र said




दर्द में डूबकर लिखी शायरी सीधे दिल पे उतरती है,
इक नशा सा चढ़ता है जवानी में कोई जैसे !!
दर्द का हर इक बूँद उतर आया हो जैसे किसी दिल के कलम से.
लिखते ही जर्रा जर्रा सिमट आया हो उनके होंठो पे जैसे !!
सिर्फ रचना होती तो लिख भी देता तारीफ में कुछ भी,
इसे देखकर तो आसमां का भी कलेजा छलनी हो गया है जैसे !!

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' replied

आदरणीय आचार्य जी को सादर प्रणाम सहित बहुत बहुत आभार आपका आशीर्वाद ही है जो थोड़ा बहुत लिख पाते हैं, आपके सानिध्य के बिना कुछ संभव नहीं था

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