अपनों से विदा लेकर
उड़ चला ऊँचे गगन में,
ग़म के आँसू सूख न पाए थे —
अचानक... ये क्या हो गया?
दुल्हन, पिया मिलन की
आस लिए चली परदेस,
माँ-बाबा के अरमानों पर
किसकी नज़र लग गई ऐसी?
अचानक... ये क्या हो गया?
भारत-दर्शन की अभिलाषा
लिए जो पहुँचे आतुंग,
कुछ सुनहरे लम्हे सँजोने
लाए थे सजीव उमंग।
पर हँसी ठिठोली चुप हो गई —
अचानक... ये क्या हो गया?
“माँ, विमान मैं ले जा रहा हूँ…
तू लड्डू बना, मैं आऊँगा।
इस बार संग बहू भी होगी…”
हर सपना धुआँ बन छूट गया।
अचानक... ये क्या हो गया?
डॉक्टर था कोई, एक शिक्षक भी,
कोई बेटा, कोई पति प्रिय था,
जो लौटना चाहता था अपनों में,
पर मौत के साथ साक्षात्कार किया।
अचानक... ये क्या हो गया?
देश को स्वस्थ बनाने का सपना,
माँ-बाप का सहारा बनने की आशा,
आँखों में झिलमिल करता था भविष्य —
पर टूट गया सब एक पल में।
अचानक... ये क्या हो गया?
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श्रद्धांजलि
यह कविता समर्पित है उन सभी
निर्दोष यात्रियों, कर्मवीर पायलटों और उनके परिवारों को
जिन्होंने एक भयावह क्षण में
अपने सपनों और अपनों से विदा ली…
लेकिन हमारे दिलों में अमर रह गए।