रोती रही, आँसू बहाए
हर बात पे धीरज दिखाए,
हर जले पर फूँक मारी,
पर फिर भी किस्मत ने हँसाई!
थोड़ा खुद को समेटा मैंने,
सोचा चलो, अब ना रोऊँ—
पर क्या करूँ,
दर्द ने फिर से आँख दबाई
और मैं फिर से रो पड़ी—
क्योंकि आदत थी, भाई!
फिर मन ही मन किया विचार,
“पुराने कर्मों का होगा व्यापार!”
जैसे जीवन कोई बीमा पॉलिसी हो
और दुःख उसका ब्याज!
फिर और भी ज़रा रो ली,
डिस्काउंट में जो बचा था
वो भी बहा दिया।
दिल बोला — EMI पूरी कर दी?
आँख बोली — हाँ, थोड़ा और बाकी है!
फिर खुद को कस के संभाला—
अब हर धोखे को देखा चश्मा लगाकर,
हर चालाकी को पकड़ने लगी
जैसे मैं कोई जासूस की मौसी हूँ!
अब लोग क्या करने लगे?
रोने लगे मुझसे!
कहने लगे— “बहुत समझदार हो गई हो तुम,
थोड़ा तो बेवकूफ़ बनो!”
मतलब साफ़ था—
मैं अगर उल्लू नहीं बनी
तो उन्हें तकलीफ़ हो रही थी!
अब बताओ भई—
मैं करूँ तो क्या करूँ?
रोऊँ तो भी आफ़त,
हँसू तो भी घोटाला,
चुप रहूँ तो ईगो,
बोल दूँ तो बेहूदगी का तमाशा!
सच कहूँ तो—
अब मैं ना रोती हूँ
ना हँसती हूँ,
बस आईना देखती हूँ
और सोचती हूँ—
“इस बार जो टूटी, वो मैं नहीं थी—
तुम्हारी उम्मीदें थीं मुझसे,
जो बहुत ऊँची थीं…
बिना सीढ़ी के!”

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




