पन्छी बन अभिलाषा उड़ती,
नील गगन के छावों में।
आतुर मन अनुरागी हो कर,
चाहत जकड़ लें बाहों में।।
आज नहीं तो कल पर क्यों,
छोड़ें हम शुभ कर्मों को।
कल किसने देखा और जाना,
किसे मिला वो राहों में।।
उच्छवास बढ़ती ही जाती,
गुज़रे हुए प्रतीतों से।
पीछा करते रहते हैं वो,
बिन चाहे भी चाहों में।।
कौन कहेगा तुझसे आ कर,
कुछ कर के दिखलाने को।
फर्क कहां और किसे पड़ेगा,
खुद जो बहा न भावों में।।
बात -बात में बात न कांटों,
बात बड़ी बेगानी है।
बात -बात में उलझ गए तो,
उलझे रहो गे अभावों में।।
बांध समर्पण भाव में मन को,
प्रीत पिरोई डोरी से।
अर्पण कर निज विह्वल हो कर,
राम लला के पांवों में।।
कृष्ण मुरारी पाण्डेय
रिसिया-बहराइच।