ज़िंदगी तुझे कैसे भुला दूं रो रो कर भी तू ही याद आता है
खुदा आंखों में भी नहीं आते की उन्हें हकीकत बता दें
शिकायत करूं तो किस से करें रूह भी नहीं सुनता है
शरीर में रूह तेरा मेरा ताल मेल कहां है कैसे समझें वसी
ज़िंदगी नाम का आविष्कार है कौन _ कौन बताएगा हमें
मतलब हमने समझा अखिर उम्र में जीवन दिखता नहीं है
जैसे खुदा तू नहीं दिखता_वैसा ही जीवन का रूप दिया है
हम आजिज जीवन से तुझे एहसास है या नहीं ये तो बता दे
अहसास का रिश्ता दिल से तेरा मेरा रिश्ता कहां से दिखता है
अजीब माजरा है जिस्म की हरेक अजु का ये तो समझा है वसी
हर अजू बेख़बर है यहीं दास्तां है सभी जीव प्राणी का कमाल है
अब कोई शिकवा नहीं जीवन से देने वाला न दिखता न सुनता है
ज़िंदगी जिंदगी खुदा खुदा चिल्लाना अच्छा नहीं यही हमने समझा है
होना है होगा मौत के बाद यहां किसी प्राणि को हानि देना दिल कबूल नहीं करता है
वसी अहमद क़ादरी ! वसी अहमद अंसारी
दरवेश ! लेखक ! कवि ! मुफक्किर ! व्यूवर