नवयुगल,
प्रेम रस पी पीकर,
मधुकर दिनकर,
और रजनी भर,
युवा दिवा भर,
और प्रौढ़ रात भर,
कभी निकलें बन करके कविता,
कभी छंद वंद स्वछन्द निख़र,
रजनी रजनी रजनीकर के,
दिवा दिवस के दिनकर के,
अध्भुत विशाल और सौम्य नभ में,
कभी बन के खग विहार करते,
है यहीं पर यौवन वन और तट,
ये हैं प्रेम के माझी केवट,
नभ वृंद वृंद वृन्दावन से,
कभी कृष्ण, राधिका बन करके,
कभी मथुरा में , वृन्दावन में,
इनकी माया ये ही जाने,
ये नवयुगल,
ये प्रेम वत्स,
करते परिभासित,
प्रेम इधर,
ये प्रेम भी बस ये ही जाने,
बुनते रहते ताने बाने,
तम में और अति तम में,
भी पाजाते पथ को,
विचलित होते हैं क्षण भर को,
फिर वापस राह को पाते हैं,
मंजिल को आते जाते हैं
----अशोक कुमार पचौरी