यूँ इस कदर जो इतरा रहा हूँ मैं,
खुद के पैर पर कुल्हाड़ी चला रहा हूँ मैं,
कागजों को समझ कर हवा पानी,
कुछ तरा रहा हूँ, कुछ उड़ा रहा हूँ मैं,
हवा भी, यूँ तो, कमी महसूस करती है,
पानी भी कहाँ ढूंढे से अब नज़र आता है,
नज़र आता है तो मंज़र बस तबाही का,
ऐसे हो या वैसे हो, जैसे भी हो ....,
खुद ही को तबाह किये जा रहा हूँ मैं,
नादान बनकर शिशक उठता हूँ,
अपनी तबाही पर,
और फिर उठ बैठता हूँ, हँसता हूँ अगले पल,
४ और पेड़ काटकर आरहा हूँ मैं,
कारखाने नए हर रोज़ बना रहा हूँ मैं,
पानी को यूँ ही बहाता चला जा रहा हूँ मैं,
यूँ इस कदर जो इतरा रहा हूँ मैं,
खुद के पैर पर कुल्हाड़ी चला रहा हूँ मैं,
सर्वाधिकार अधीन है