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The Flower of WordThe Flower of Word by Vedvyas Mishra

कविता की खुँटी

        

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Dastan-E-Shayra By Reena Kumari PrajapatDastan-E-Shayra By Reena Kumari Prajapat

कविता की खुँटी

                    

आपकी आप जानें मेरे तो राम हैं

आपकी आप जानें
मेरे तो राम हैं

कल कुछ लिखा नहीं
शायद कुछ दिखा नहीं
दिखता तो शायद लिखती
फिर से वही गंदगी
बुहारना कूड़ा समेटना उठाना
Dustbin में डालना

मेरे आस-पास narcissist हैं
Atmosphere Narcissistic है
वो अपनी बात को ही सच कहता है
सच कहो तो मारता-पीटता है
सच वो सुन ही नहीं पाता है
सच से उसका narcissist खुलकर बाहर निकल आता है
वो बन जाता है जैसे कोई devil 😈 👿
नहीं रह जाता फिर वो दिखावे भर का भी रहमदिल

हां ! मैं विवश की गई
ऐसे माहौल में रहने को
हां ! मैं विवश की गई
इतना सब गंद सहने को
हां ! मेरे ऊपर 24*7
नज़र रखी गई
हां ! मुझे रोका गया बढ़ने से
और मैं तकी गई
थक ही गई मैं रिश्तें वाहियात निभाते
कभी कोख में मारते कभी सिर पिटवाते
जैसे वो मेरा वजूद ही ख़त्म कर देना चाहते हैं
मनीषा नाम की थी कोई ऐसा ही परचम चाहते हैं

Height बढ़ने ना पाएं मेरी
इसका बड़ा ध्यान रखा गया
खाना पकाने वाली तो मैं होती थी
लेकिन खाना मिला बचा ढका हुआ
पढ़ाई में अव्वल आती तो इससे भी गुरेज़ करते
मेरे पढ़-लिखकर काबिल बनने से परहेज़ करते
आज स्कूल मत जा, कौनसा दफ्तर पलट देगी !?
कॉलेज छोड़कर घर बैठ, दूसरों को असर गलत देगी

फिर भी मैं जाती रही अपने पंखों को उड़ान देने कॉलेज।
तंत्र-मंत्र टोने-टोटकों से अनभिज्ञ, किताबी ज्ञान की लेने knowledge.
जो narcissist को फूटी आंख नहीं सुहा रहा था।
वो रोज़ काली-क्रियाओं का मेरे नाम से उड़ा धुआं रहा था।
मेरा ध्यान पढ़ाई पर रहा और ये bad spells करते फ़ूल रहे।
Mind controlling, Negativity, Black Magic सब इनके tool रहे।

Seven Chakras को मेरे बार-बार target किया गया।
Throat Chakra, Heart Chakra, Root Chakra को memory se forget किया गया।
Delete करने की कोशिशें रहीं, याद किया मेरा study material.
Memory Power down करते थे, सिरदर्द बना रहता था जैसे arial.

करते रहते चुगलियां इसकी मुझसे, मेरी उसको।
कितनी की कब कैसे कहां-कहां बताऊं किस-किसको!
दूर रिश्तेदारियों तक में चुगलियां गई मेरा होता रिश्ता तोड़ने।
narcissist फिर लगते झूठे ही हाथ पर सरसों जोड़ने।

मैं अवाक सी इन्हें देखती रह जाती थी।
बोलते कुछ बनता नहीं था ,चुप खड़ी रह जाती थी।
मेरा यहां कौन था जो मेरी कहता-सुनता।
ईश्वर को ही मैं गुनती, ईश्वर ही मुझे गुनता।
प्राथनाएं करती रही मेरी रक्षा करो हे ईश्वर..
हे जगतपिता हे नीलकंठ हे जगदीश्वर हे सर्वेश्वर..

समय का पहिया घूमता रहा कठिनाइयों के रास्ते पर।
आहिस्ता-आहिस्ता स्कूल से कॉलेज हुआ केवल ईश्वर के वास्ते पर।
जैसी दुश्वारियों को मुझे दिखाया गया, कोई भला ना देखे।
ईश्वर पर विश्वाश रखे, गिरगिटों की सलाह ना देखे।
आज का हाल बस यहीं तक लिखती हूं।
अच्छा तो अब मैं चलती हूं..🙏
फिर मुलाक़ात होगी आपसे फिर नई रचना के साथ
अच्छा तो अब मैं चलती हूं..🙏


_______मनीषा







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रचना के बारे में पाठकों की समीक्षाएं (2)

+

Shiv Charan Dass said

बहुत खूब

अशोक कुमार पचौरी 'आर्द्र' said

वाह! बहुत ही गहरी और भावनात्मक रचना है। आपने जो महसूस किया और जिया, उसे बहुत ही सटीक और प्रभावशाली तरीके से शब्दों में पिरोया है। आपकी रचना में संवेदनाओं की गहराई और संघर्ष की कहानी साफ झलकती है। बहुत सारे लोग जो इसी प्रकार के मानसिक दबाव से गुजर रहे हैं, वे इस रचना से खुद को जुड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं। बहुत ही सशक्त शब्दों में व्यक्त किया आपने अपनी भावनाओं को। अद्भुत! 👏✨

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