अभिशप्त जीवन की गाथा
वर्किंग वुमन सुन जायका बदल गया।
तुमने सहज ही में कमतर आँक लिया।
वर्क लाइफ हुआ एक डरावना सपना।
बैलगाड़ी का दूसरा बैल समझ लिया।
दो अदद बच्चो की वह दुलारी माता।
अभिशप्त जीवन की बनी एक गाथा।
गैया सी रंभाती भागती वो घर आती।
दुलराती क्या वक्त बच्चो को दे पाती।
बच्चो के शिकवे पेरेंट्स के उलाहने।
हर कोई शिकवों की फेहरिस्त लिये।
थककर आए पति की है फरमाइशे।
घर लौटी बिखरा हुआ जीवन पाती।
कौन था कंधे पर लदा बोझ उतारता।
व्यस्तता के जीवन ने उसे मथ डाला।
गिद्ध सी घूरती उठती तिरस्कृत नजरे।
हर मोड़ पर कोई तो नही सुननेवाला।
जीवन होमकर भी खुशी अधूरी थी।
घर आफिस के बीच झूलती रहती।
वर्किंग मोम की जिंदगी कहाँ पहुंची।
भागते भागते जीना मुहाल हो जाता।
हर किसी चेहरे मे आक्रोश भाव था।
सभी चेहरों पर मुस्कान अभाव था।
चलती रही उस पतली किनारी पर।
कुआ खाई के बीच संतुलन बनाती।
काम और जीवन के बीच झूल रही।
असंतुलन के अवसाद से पीड़ित थी।
कौन उस भीड़ मे यह दर्द देख पाया।
ढोती परिवार वो संघर्ष करती जाती।
#सुरेश गुप्ता
स्वरचित और मौलिक