कभी-कभी जीवन की सतह पर सब कुछ सामान्य प्रतीत होता है ,
चेहरे पर मुस्कान, कामों की नियमितता, रिश्तों का परिचित संगीत।
पर भीतर एक गूंज सी बजती है,
जो न शोर है, न सन्नाटा ,
बस एक ऐसी थकान है, जो दिखाई नहीं देती, पर महसूस होती है।
यह थकान शरीर की नहीं होती,
यह आत्मा की होती है।
"आत्मा थक क्यों जाती है?"
कभी-कभी सब कुछ ठीक होते हुए भी,
मन चुप सा हो जाता है, और आत्मा थकी-थकी सी लगती है।
ना कोई शोर, ना कोई आँसू — बस एक गहरी खामोशी।
क्यों?
क्योंकि आत्मा हर बार ख़ुद को साबित नहीं कर सकती।
जब रिश्ते तर्क मांगते हैं, और प्रेम प्रमाणपत्र —
तो आत्मा थकती है।
जब हम जिनसे सबसे ज़्यादा जुड़े थे,
वो अजनबी बन जाएं ,
तो आत्मा का कोई हिस्सा उसी मोड़ पर रुक जाता है।
जब हम बार-बार अपने जज़्बातों को दबा कर
'समझदार' बनते जाते हैं,
तो रूह चुप होकर बस एक लंबा सास लेती है।
जब हर बार देना ही पड़ता है ,
समय, माफ़ी, समझ, साथ ,
पर लौटकर कुछ नहीं आता,
तो आत्मा सूखने लगती है।
जब किसी को पाने की कोशिश में
हम अपनी ही पहचान खो देते हैं,
तो थकान शरीर में नहीं, वजूद में उतरती है।
जब हम अपने सपनों को हालात के नीचे दफनाते हैं,
और फिर हर सुबह उस दफ़न सपने पर चल कर बाहर निकलते हैं,
तो आत्मा में छाले पड़ते हैं।
और जब दिल और दिमाग दो दिशाओं में खिंचते हैं ,
तब बीच में पिसती है रूह।
असल में आत्मा इसलिए नहीं थकती कि उसने बहुत कुछ सहा है,
वो इसलिए थकती है क्योंकि उसने बहुत कुछ सह कर भी
ख़ुद को नहीं बताया।
वो इस इंतज़ार में थकती है
कि कोई तो होगा जो उसकी ख़ामोशी को पढ़ लेगा।
और शायद यही सबसे बड़ी थकान है ,
ख़ुद को हर रोज़ चुपचाप ढोना।
जब हम बार-बार अपनी भावनाओं को दबाते हैं,
जब हर बार अपने ही मन को समझाते हैं कि "कोई बात नहीं",
जब हर दिन की शुरुआत 'ठीक हूँ' से होती है,
पर हर रात एक अनकहे बोझ से भर जाती है ,
तब आत्मा थकने लगती है।
जब हमारी ख़ामोशी को आदत मान लिया जाए,
जब हमारी मुस्कान को प्रमाण मान लिया जाए कि सब ठीक है,
जब कोई यह न पूछे कि उस मुस्कान के पीछे क्या छिपा है —
तब आत्मा धीरे-धीरे थकने लगती है।
हमारी आत्मा थकती है जब,
हम सबको सुनते हैं, पर कोई हमें नहीं सुनता।
हम सबको समझते हैं, पर कोई हमें नहीं समझता।
हम सबके लिए रहते हैं, पर कोई हमारे लिए ठहरता नहीं।
असल में आत्मा किसी काम से नहीं थकती,
वो थकती है जब वो लगातार नज़रअंदाज़ की जाती है ,
अपने ही द्वारा, दूसरों के द्वारा, और उस मौन से जो हर दिन भीतर उतरता चला जाता है।
आत्मा थकती है जब:
वो हर बार किसी की बेरुख़ी को 'मिज़ाज' समझकर माफ़ करती है।
जब वो हर बार किसी की चुप्पी को इशारा समझकर ख़ुद को तोड़ती है।
जब वो किसी की मौजूदगी में भी अकेलापन महसूस करती है।
क्या आत्मा को विश्राम चाहिए होता है?
हाँ, पर वो नींद से नहीं आता।
उसे राहत चाहिए होती है ,
किसी की नज़र से, जो उसकी थकान देख सके।
किसी के शब्द से, जो सिर्फ़ कहे नहीं, महसूस भी कर सके।
थकी आत्मा को कोई दवाइयाँ नहीं चाहिए होतीं,
उसे चाहिए ,
एक ऐसा संबंध, जहाँ वह स्वयं हो सके,
जहाँ उसे हर बार ख़ुश दिखने की भूमिका न निभानी पड़े,
जहाँ कोई कहे ,
"तुम जैसा हो, वैसे ही काफ़ी हो।"
क्योंकि जब आत्मा बार-बार स्वयं से समझौता करती है,
तो वह थकती नहीं —
वह धीरे-धीरे चुप हो जाती है।
और आत्मा की चुप्पी, सबसे भारी सन्नाटा होती है।
इसलिए अगली बार जब कोई मुस्कराए,
तो उसकी आँखों में झाँक कर देखिए —
क्या वहाँ कोई थकी हुई रूह तो नहीं छुपी है?
और यदि आप ख़ुद से मिलने के लिए रुके हैं,
तो बस इतना पूछिए -
"क्या मेरी आत्मा अब भी साँस ले रही है,
या वह महज़ ज़िंदा रहने की आदत बन चुकी है?"