चलते चलते अक्सर सोचती हूँ
सोचा हुआ अक्सर भूलती हूँ
क्या सोचा था भूल ही जाती हूँ
मंथन की गतिमें रुक सी जाती हूँ
लिख लूँ या संग्रह कर लूँ चाहती हूँ
पर ये क्या ? वक्त की मारी हूँ
काश ऐसा कर पाती
अपनी ही सोच से लड़ पाती
बार-बार वो न सताएं मुझे
उसे रोक पाती.....
काश लिखावट की आगमें
फिर 'मैं' न जलती.....
लेकिन ये सोच अक्सर आती है
बस आती ही रहती है......