व्यंग्य: “संसाधन तेरा, सुकून मेरा”
जब किसी को किसी से भेदभाव करना हो, तो जाति, धर्म या भाषा कुछ मत देखो — बस यह देखो कि उसके पास संसाधन कितने हैं।
क्योंकि असली समस्या ये नहीं कि कौन क्या पहनता है, असली दर्द ये है कि वो क्या खाता है और कितनी बार खाता है।
एक वादे में थोड़ा प्यार, दूसरे में थोड़ा आरक्षण, तीसरे में पूरा बजट।
अब जंगल सिर्फ बच्चों की किताबों में मिलते हैं —
वहाँ शेर नहीं, मंत्रीजी भाषण देने जाते हैं,
और बंदर पेड़ों से नहीं, अब पोस्टों से लटकते हैं।
मणिपुर में आग लगी थी, पर दिल्ली कहती है –
"वो तो स्थानीय मामला है, हम तो ग्लोबल सोचते हैं!"
जब कोई भूखा मरता है,
तो नेता सोचता है:
"शुक्र है वोटर कम हुआ!"
अब जल, जंगल और ज़मीन का हक़ वो लोग तय करते हैं,
जिन्होंने न कभी मिट्टी छुई, न कभी पसीना बहाया —
हाँ, रेनकोट में ज़रूर नहाया है।
पेड़ कटते हैं ताकि घोषणापत्र छपें,
नदियाँ सूखती हैं ताकि भाषणों में बहें।
अदालत भी अब 'वर्क फ्रॉम होम' मूड में है —
सुनवाई की तारीख़ आती है, इंसाफ़ की नहीं।
भाषा अब संवाद की नहीं, दंगे की पहचान बन चुकी है —
और मातृभाषा?
वो तो अब सिर्फ़ 'मदर बोर्ड' में मिलती है।
राजनीति का अब मुख्य ध्येय है:
"रोटी मत दो, मोबाइल दो — भूखा रहेगा पर वोट देगा।"
अब किसान बीज बोता है, पर फसल सरकारी ऐप पर उगती है,
बारिश नहीं हो तो भगवान दोषी,
ज़्यादा हो जाए तो विपक्ष ज़िम्मेदार।
और अंत में –
जब सब बँट गया – धर्म, जाति, भाषा, भूख, और उम्मीदें —
तो बची सिर्फ़ सत्ता।
जिसे सब मिलकर बाँधते हैं, पर खुलता वही है जिसकी जेब में चाभी हो।
- ललित दाधीच।।