प्रेम-जगत १
( 'प्रेम - जगत' संसार का रंगमंच है और हम सभी इस रंगमंच के पात्र।)
विज्ञो का ऐसा मत है कि 'आदि मानव' ने प्रेम की, आदिम आग की उष्णता से सृष्टिकी रचना की 'आदम और हौवा व ,मनु और शतरूपा ने बाव संवेदन धड़कते 'प्रेम भावना' के लिए स्वर्ग के संवेदन हित 'आनदं- रस' को नही,अपितु जगत के कठोर जीवन को अपनाया। 'ओ- ढोलमारो , लैला - मजनू , रोमियो -जुलियन ,हीर- रांझा , की प्रेम - कथाएं तो यही रेखांकित करती है की प्रेम ही जीवन का सार है, प्रेम विहीन जगत वीरान है|इसी प्रेम के 'वशीभूत '(जगत बनाने वाले) माता (प्रकृति)व पिता (पुरुष) जगत का निर्माण किया । अतः उन्हें मेरा सहस्त्रों बार प्रणाम !
परिवारिक सुख आकाश में घटाओ के सदृश होता है| सुख उत्पन्न होता है पर चिरकाल तक स्थिर नही होता उन घटाओं सदृश छिप जाता है ।
'वर्षो से मेरे आँगन में एक 'अंगना'(स्त्री) नही जिससे मेरी आँगन सुनी है । 'ऐसा ही विचार कर 'मनीलाल' अपने पुत्र (मधुसूदन )का विवाह कर रहे हैं । असलबात मधुसूदन जब १० वर्ष का था, तब उसकी 'जन्म जननी' दुनिया से चल बसी । वह मां की ममता को न पा सका- मां की ममता उसके लिए आसमान के कुसुम हो गई ।
'मनीलाल' मंजोल गढ़ के एक ईमानदार पुरुष हैं । वे सबको 'एक आँख' से देखते हैं । 'पत्नी मृत्यु' के बाद उनके आंखों से खून उतर आता, बस याद आती , कमर तोड़ जाती ..। बस उसी के याद को भुलाने और दुःख के आंसु को सुख में बदलने के लिए ही वे अपने पुत्र का विवाह कर रहे है ।
मधुसूदन का विवाह सुमन के साथ हो रहा है । 'सुमन' एक सजीली लड़की है । वह विदित नारायण की पुत्री है । 'विदित नारायण' भले व नेक इंसान है ।वे 'प्रेमगढ़' के सकुशल व्याक्ति हैं ।आखिर एक दिन मधुसूदन की बारात प्रेमगढ़ के लिए निकल पड़तीं है और लोगों की इंतजार की घड़ियां ख़त्म हो जाती है ।
'प्रेमगढ़' एक मनभावन नगर है। , किन्तु 'मधुसूदन' की बारात ने उस नगर की ओर सजा दिया है उस जन -संकुल नगर में अति चहल - पहल है । मधुसूदन के माथे पर सुन्दर सेहरा है । जिससे मधुसूदन अति प्रसन्नचित है । वहां का विशद् ए नूर अनुपम है । धरती के आसमा तक शहनाइयों की ध्वनि गूंज रही है , तारे - गण आकाश में टिमटिमा रहे हैं मानों सबके खुशीयों में झूम रहे हों । (कुछ देर बाद) पुरोहितों द्वारा शिव ,गौरी व गणेश जी की पूजा कराइ जा रही है। वहीं सुहागिन स्त्रियों मंगल गान गा रहीं हैं । जिससे आये सभी कुटुम्ब जन आनंदित हो रहे हैं। (धीरे- धीरे द्वार चार की रीति- रस्म पूर्ण हो जाती हैं) वही एक सुंदर जनवास है जिसमे आये सभी बारातियों की मंडली क्रमशः बैठी है। उन सबकी नज़र (सामने) दूल्हे और दुल्हन पर एक टक लगी हैं । 'वे' सब उनके मुस्कान भरे चेहरे को देखकर बरबस ही मोहित हो रहें हैं। ख़ैर सुंदरता किसे नही मोहित कर लेती ।
आज 'सुमन' बारहों भूषणों से सजी है । उसके पैरों में नुपुर के साथ किन्किडि है । उसके
हाथों में कंगन के साथ चूड़ियां हैं। उसके गले में कण्ठ श्री है । बाहों में बसेर बिरिया के साथ बाजूबंद है । माथे पर सुन्दर टिका के साथ शीश में शीश फूल है । उसे देख कर ऐसा लग रहा मानो 'सुमन' नंदन की परी हो.. जो श्रृंगार- रस और सौंदर्य का मिलन हुआ है |
अब प्रभात की सु मधुर बेला में 'सुमन' और 'मधुसूदन' सात फेरों के पवित्र बंधन में बंध रहें हैैं ।उनके इस बंधन के साक्षी अग्निदेव है । वहीं अपने कुलानुसार लाई -पर छन और नेक - चार का रीति रस्म पूर्ण होता है। हालांकि 'सुमन' के अपने कोई भाई नहीं हैं तब भी 'मंगला' नाम का व्यक्ति अपने आप को सौभाग्य जान कर अपने हाथो से सुन्दर संबध जना रहा है । मानो सीता जी के लिए पृथ्वी का पुत्र मंगल ग्रह आया हो। शनै - शनै विदाई की पुनीत घड़ी आन पड़ी है । जहा पूजनीय पिता 'विदित नारायण' के पांव न उठ रहे है ,और न ही टस से मस हो रहे हैं । वहीं दूसरी ओर मां 'सुनैना' की ममता टूट कर बिखरे पड़ी है ।
'प्रेम - जगत' का ' प्रेम ही अजूबा है जब 'सुमन' अपने पति के गले में वर माला डाल रही थी तब सब की आंखें एक टक हो कर उस की ओर देख रहीं थीं। परन्तु अभी सबकी आंखे नम् है । किसी के मुख से कुछ भी शब्द निकलते नहींं बनता मानों सौंदर्य ने श्रृंगार- रस छोड़ कर शांत - रस को अपना लिया हो । जो 'सुमन' कल तक अपने साथी - सहेलियों की प्रिया थी एक बाबुल की गुड़िया थी, बाबुल की 'प्रीत' रुपी बाहों में झूलकर कली से सुमन बनी...आज वही सुमन बाबुल की प्रीत में मुरझाकर बिदा हो रही है । खैर बगैर मुरझाये सुमन को बहारों का सुख कहा मिलेगा ? जब तक इस जगत में प्रेम रहेगा... तब तक सुमन को बहारों का सुख मिलता रहेगा ।चंद लम्हों के बाद विदित नारायण अपने दिल के टूकड़े को विदा कर देते हैं। 'सुमन' आंखों ही आंखों में देखते - देखते प्रेमांगन से दूर चली जाती है ।
प्रेम -जगत २
'मनीलाल' कृत- कृत्य हो गए , जो उनके वर्षो की सुनी आंगन में' सुमन 'का जो आगमन हुआ । इस जगत में प्रेम भी अपने वेष को बदलता रहता है । जो 'मनीलाल' कल तक लोगों की सलामती चाहते थे वही 'मनीलाल' अनायास ही परलोक सिधार गए। सारा 'सुख', दुःख में बदल गया जहाँ मधुसूदन की जिंदगी चांदनी रातों के समान चमक रही थी अब वहीं खौफनाक अंधेरा सिर्फ अंधेरा …अब तो मधुसूदन के ऊपर पहाड़ सा टूट पड़ा। "अगर उसके मन में खुशी होता तो रात अंधेरा भी दीप्त सा लहक पड़ता" किन्तु चांदनी रातों में दु खों का साया पड़ जाये तो उसे कौन रोशन करेगा ? वहीं मधुसूदन बिलख-बिलख कर रो रहा है। वहा आये सुजन गण विमन है। उन्हें मधुसूदन का रोना अच्छा नही लगता तो वे कह उठते हैं - "मत रो मधुसूदन ! मत रो, जो होनहारी है सो तो होगा ही ... किसी का भी संयोग से मिलन होता है और वियोग से बिछड़ना। हां मधुसूदन ये जिंदगी रोने के लिए नही है ।जीवन का प्रवाह जैसा बहता है तूं बहनें दे ।किन्तु तूं मत रो,रोना जगत के लिए पाप है । मरना सौ जन्मों के बराबर है जो अंतिम सच है । यह रोने की घड़ी नही है। तुमने बाल्यकाल में जिन कंधो को हाथी, घोडा और पालकी बनाकर अपार आनद उठाया था न, आज तुम्हें उन्हीं कंधो के मोल को अदा करना है इसलिए तुम भी अपने पिता (मनीलाल) को कन्धा दो ।
'मनीलाल' के परलोक सिधारते ही घर की आर्थिक स्थिति दुरुस्त नही रही । जहाँ मधुसूदन ऐसो आराम की जिंदगी जी रहा था...अब वहीं पहाड़ खोद -खोद कर चुहिया निकालने लगा , जिससे प्रेम -जाल में बंधे पत्नी (सुमन) और पुत्र का पेट पल सके ।
आखिर एक दिन मधुसूदन घर की स्थिति को दुरुस्त करने के लिए घर से निकल गया बहुत दूर... वह जान से प्यारे पुत्र को ममत्व के छाव छोड़ गया जहां मां ( सुमन )की ममता आपार थी और पुनीत गोद विशाल ।'
ईश्वर की लीला बड़ी विचित्र है । जब मधुसूदन २ वर्ष तक घर नही आया, तब 'सुमन' नयन - जल लिए विलापती - ओह देव ! क्या ' मेरे पति देव जगत में कुशल भी हैं या उनसे मेरा नाता तोड़ दिया ? वह एक तरफ स्तमभित हो कर भगवान को दोष देती वहीं दूसरी तरफ अनुसूया जैसे पतिव्रता नारी धर्म का पालन भी करती।
पर उसे मालूम नही की इस संसार में कोई किसी को दुःख देने वाला नही है । सब अपने ही कर्मो का फल है 'सुमन, चार दिवारी के बाहर, विवर्ण मुख, अध:शिर किये बैठी है। उसकी आंखें नम् है व केस विच्छिन्न,जिससे फेस ढका है । "सूर्य की लालिमा उसके तन पर पड़ रहे हैं तब भी वह दुखों की काली सागर में डूबी जा रही है मानो अब उस अबला के लिए तड़पना ही उसका सफर बन गया हो। वह जैसे पति- प्रतिक्षा में बिकल है वैसे ही प्रकृति भी अपने अनमोल छटा से विचल है । वह बारम्बार विधाता को दोष देती और कहती - हां ,देव ! तूं सच-सच बता.. तूने मेरे ख्वाबों इरादों को पत्थर तो नही बना दिया ? क्या सूर्य के बिना दिन और चंद्रमा के बिना रात शोभा पा सकते है ? नही न... फिर मै अपने पति के बिना कैसे शोभा पा सकती हूं ? क्या तुझे एक दूजे की जुदाई का तजुर्बा नही... अगर नही, तो इस " प्रेम - जगत "में 'आ'...और आकर देख ... तेरे बनाये इस कठोर धरती पर, तेरा ये मिट्टी का खिलौना (पुतला) एक प्रेम के लिए कितना 'अधीर'है । कि 'कास हमें मुठ्ठी भर प्रेम मिल जाता तो हमारे इस मिटटी के खिलौने में जान आ जाता … । आगे वह कहने लगी -'अब दिन फिरेंगे' तो जी भर के देखूंगी ।' हां देव !अब विलम्ब न कर ...उन्हें घर के चौखट तक ला दे । ये तुमसे मेरी आर्तनाद है और एक दुहाई भी।' हां लोगो को यह भ्रम है कि मैंने अपने पति (मधुसूदन )को घर से तू- तू ,मै -मै कर और मुह फुलाकर निकाल दिया है।पर तुम तो सर्वज्ञ हो तुम्हें मालूम है कि "मै उन्हें सप्रेम गले मिलाकर किस्मत बनाने और जिंदगी सवारने के लिए भेजा है।
अतः ये आंखे उनकी प्रतीक्षा में कब से राह सजाये खड़ी है । अंततः एक दिन मधुसूदन बीते हुए मौसम की तरह अपने पत्नी सुमन के पास लौट आया और पति से गले लगते ही सुमन झूम उठी मानों बहारों के आने पर मुरझाई कली खिल रही हो ।
मधुसूदन हंसते हुए पूछा- क्या हुआ सुमन ? तूम इतनी बेचैन क्यों हो ? क्या मै इस प्रेम -जगत में आकर सचमुच खो गया था ? अगर हाँ मै खो गया था तो क्या मेरा प्रेम भी इस जगत से खो गया था ? इन सवालों के ज़वाब सुमन न दे सकी और अपने बहारों में महकने लगी ।
शिवराज आनंद