भीषण गर्मी से झुलसती धरती, सूखते पेड़-पौधे, प्यासे पशु-पक्षी और राहत की आस में थकी हुई मानवता, सब जैसे एक स्वर में पुकार रहे थे किसी एक बूँद राहत के लिए। तभी सावन का मौसम आया और बारिश की पहली फुहारों ने तपती धरती को चूम लिया, हरियाली मुस्कुराई, और ठंडी हवाओं ने जीवन को फिर से उमंग और ताजगी से भर दिया।
पहाड़ों से उतरती नदियाँ, झरनों की कल-कल ध्वनि, पक्षियों की चहचहाहट, बादलों की गड़गड़ाहट, मेंढकों की टर्र-टर्र, रिमझिम फुहारें, मिट्टी की सौंधी सुगंध, मोर का नर्तन और खेतों में फैलती हरियाली। यह सब किसी उत्सव जैसे प्रतीत होते हैं। सावन में कांवड़ यात्रा, झूले, गरम चाय और पकौड़े, सावन के गीत, ये सभी जीवन को आनन्द से भर देते हैं। परन्तु इस बार सावन मेरे लिए पहले जैसा नहीं रहा। अब न वह उत्साह रहा, न उमंग, न वह घुमक्कड़ी रही और न ही प्रकृति के संगीत में खो जाने की ललक, क्योंकि अब मैं बड़ा हो गया हूँ। अब मैं वह कटी पतंग नहीं रहा, जो बेपरवाह उड़ती थी। अब मैं एक डोर से बंध गया हूँ, वह डोर जो जिम्मेदारियों, आर्थिक दबावों और सामाजिक अपेक्षाओं से बनी है। बेरोजगारी का बोझ, बढ़ती महंगाई, भविष्य की असुरक्षा और समाज में फैलती असंवेदनशीलता ने मेरे सावन से उसकी मिठास छीन ली है। वह मौसम, जो कभी आत्मा को शीतलता देता था, अब केवल स्मृतियों में रह गया है।
पहले जब सावन आता था, तो मैं घंटों पहाड़ों को निहारा करता था। लगता था जैसे वे कुछ कहना चाहते हैं, अतीत की कोई कहानी सुनाना चाहते हैं। पर अब उन्हीं पहाड़ों के पास बैठता हूँ, लेकिन एक बोझिल मन के साथ। नदियाँ आज भी बह रही हैं, झरने आज भी गिर रहे हैं, पक्षी अब भी चहचहा रहे हैं , लेकिन मैं अब वैसा नहीं रहा।
इस बदलते सावन का कारण केवल मेरी उम्र या जिम्मेदारियाँ नहीं हैं, बल्कि वह व्यवस्था है, जिसने हम युवाओं को बेरोजगारी, असुरक्षा और निराशा के हवाले कर दिया है। सरकारें जो जीवन और समाज में हरियाली ला सकती थीं, उन्होंने ही बेरंग बना दिया है। राजनेता भाषाओं, जातियों और आरक्षण के नाम पर राजनीति करते हैं, पर न तो बेरोजगारी पर ध्यान दिया जाता है, न ही शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय-व्यवस्था को सुदृढ़ करने पर। हत्या, भ्रष्टाचार, आत्महत्याएँ, नैतिक पतन और राजनीतिक स्वार्थ यही आज के सावन का कटु यथार्थ बन गया है। फिर भी मैं पूरी तरह निराश नहीं हूँ। मैं आज भी पहाड़ों के पास जाता हूँ, पेड़-पौधों से बातें करता हूँ और उनसे कहता हूँ — फिर आएगा वह सावन
जब हम न केवल प्रकृति की हरियाली का, बल्कि जीवन की हरियाली का भी स्वागत करेंगे। मुझे विश्वास है क्योंकि सावन केवल एक मौसम नहीं है, सावन ईश्वर की भाषा है और ईश्वर कभी निराश नहीं करता।
-प्रतीक झा 'ओप्पी'
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज