मेरे हिस्से का मानसून,
इक दिन आयेगा ज़रूर !!
बेशक़ हवाओं ने रूख,
बदल दिया होगा !!
मेरे हिस्से का मानसून,
इक दिन लौटेगा ज़रूर !!
थपकियाँ मिलती नहीं अब,
सुर से या साहित्य से !!
हो गये अब सब कवि,
गोली के रफ्तार से !!
मेरे हिस्से की तालियाँ,
इक दिन बजेंगी ज़रूर !!
शाख तरसे जुड़ने को अब,
अपने पुराने डगाल पर !!
इन नई काॅलोनियों में,
अपना कोई रहता नहीं !!
मेरे हिस्से की दीवानगी,
इक दिन पहचानेगी ज़रूर !!
----वेदव्यास मिश्र
सर्वाधिकार अधीन है