लेखक वो होता है जो पहले खुद को लूटता है, फिर समाज को आइना दिखा देता है। और समाज आइने को तोड़कर संतुष्ट हो जाता है।”
मैंने एक दिन अपने पड़ोसी से कहा —
“भाई, मैं किताब लिख रहा हूँ।”
वो चौंका, जैसे मैंने कहा हो — “मैं चोरी करने जा रहा हूँ, आशीर्वाद दीजिए।”
उसने पूछा, “किस विषय पर?”
मैंने कहा — “ज़िंदगी पर।”
वो हँस पड़ा जैसे किसी गरीब ने कह दिया हो कि वो स्विस बैंक में खाता खोल रहा है।
मैं लेखक नहीं, ज़िंदगी नाम की कंपनी का ठगा गया ग्राहक हूँ।
अब सोचता हूँ कि इसकी सर्विस खराब थी, कस्टमर केयर कभी उठती नहीं थी, और जो Terms & Conditions थीं — वो कभी दिखाई ही नहीं गईं।
जन्म का बिल और मौत की गारंटी:
हमें ज़िंदगी थमा दी गई — बिना मैन्युअल के।
कोई रिटर्न पॉलिसी नहीं।
जैसे किसी ने आपको गैस सिलिंडर दिया हो और माचिस ही न दी हो।
जन्म हुआ — अस्पताल वालों ने पैसे लिए।
मौत होगी — श्मशान वाले लेंगे।
बीच में जो कुछ भी है — वो EMI पर दुःख और इंस्टॉलमेंट में समझौता है।
समाज नाम का सेल्समैन:
समाज एक ऐसा सेल्समैन है जो आपको हर चीज़ ज़बरदस्ती बेचता है —
“शादी कर लो वरना अधूरे रह जाओगे।”
“बच्चे पैदा करो वरना वंश खत्म हो जाएगा।”
“रोज़गार करो वरना भिखारी समझे जाओगे।”
मतलब, वो आपको कभी पूछेगा नहीं कि “तुम्हें चाहिए क्या?”
सोचने वाले का अपराध:
मैं सोचता हूँ — बस यही मेरा अपराध है।
क्योंकि इस देश में जो सोचता है, वो या तो पागल हो जाता है या ग़द्दार घोषित कर दिया जाता है।
हमारे यहाँ बुद्धिजीवी को वैसे देखा जाता है जैसे सब्ज़ीवाले को कोई ग्राहक बिना मोलभाव किए देखता है — शक से।
लेखक बनने का परिणाम:
तो जब मैंने सोचा कि इन सब अनुभवों को किताब में लिखूं —
लोगों ने मुझे बताया — “कहीं जेल न हो जाए!”
एक ने तो सलाह दी — “किताब छपवाने से अच्छा है YouTube चैनल खोल लो। वहाँ views मिलेंगे, सच्चाई नहीं पूछी जाएगी।”
मैं लेखक नहीं — एक ठगा गया ग्राहक हूँ
जो रसीद ढूँढ रहा है अपने ‘ज़िंदा’ होने की
जिस पर लिखा हो —
“आपने जो जीवन लिया है, उसमें हम आपके दुःख, भ्रम और संघर्ष के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं।”