"ग़ज़ल"
जब ख़ुद से लिपट के रोता हूॅं!
तब मैं चैन से सोता हूॅं!!
मुझ से किसी को क्या मतलब!
मैं कौन किसी का होता हूॅं??
वो हर क़दम पे पाते हैं!
मैं हर क़दम पे खोता हूॅं!!
मैं फिर भी कर्म की भूमि में!
बीज उमीद के बोता हूॅं!!
उन की फ़ुर्क़त में 'परवेज़'!
मैं ख़ून के ऑंसू रोता हूॅं!!
- आलम-ए-ग़ज़ल परवेज़ अहमद