जीडीपी 7.8 %, परन्तु फायदा किसे ?
भारत की अर्थव्यवस्था ने वित्त वर्ष 2025-26 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में 7.8% की प्रभावशाली जीडीपी वृद्धि दर्ज की है।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के अनुसार, वास्तविक (रियल) जीडीपी 47.89 लाख करोड़ रुपये तक पहुंची, जो पिछले
वर्ष की तुलना में 7.8% अधिक है। यह आंकड़ा भारत को वैश्विक मंदी के बीच दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में
अंकित करता है। मगर सोचने की बात यह है कि क्या यह वृद्धि आम आदमी, छोटे किसानों, और समाज के निचले तबके तक
पहुंची पाई ? क्या कीमतें कम हुईं, या इसका फायदा व्यापारियों की चालाकियों की भेंट चढ़ गया? या फिर सरकार ने अपनी
साख बचाने के लिए कोई विशेष हथकंडे अपनाए? यहाँ हम इन सवालों पर विश्लेषण करेंगे और समझेंगे कि 7.8% वृद्धि
की असली सच्चाई क्या है।
रियल बनाम नॉमिनल जीडीपी: कितना असली, कितना महंगाई का खेल?
जीडीपी को दो तरह से मापा जाता है: नॉमिनल जीडीपी (जो मौजूदा कीमतों पर आधारित है और महंगाई को शामिल करती है)
और रियल जीडीपी (जो महंगाई को हटाकर वास्तविक उत्पादन दिखाती है)। इस तिमाही में नॉमिनल जीडीपी 8.8% बढ़ी,
जबकि रियल जीडीपी 7.8% रही। इसका मतलब है कि 1% वृद्धि महंगाई (इन्फ्लेशन) के कारण थी। जीडीपी डिफ्लेटर
(महंगाई मापक) सिर्फ 1% रहा, जो हाल के वर्षों में सबसे कम है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह आंकड़ा थोड़ा
कम दिखाया गया हो सकता है, और वास्तविक वृद्धि 6.5-7% के बीच हो सकती है।उदाहरण के लिए, अगर एक किसान
ने पिछले साल 100 किलो गेहूँ 2000 रुपये में बेचा और इस साल 105 किलो 2200 रुपये में बेचा, तो नॉमिनल वृद्धि 10%
दिखेगी, लेकिन रियल वृद्धि सिर्फ 5% होगी। इस 7.8% रियल जीडीपी में सेवाओं (जैसे आईटी, बैंकिंग) की वृद्धि 9.3%
और निर्माण की 8.6% रही, लेकिन कृषि क्षेत्र सिर्फ 3.7% बढ़ा। इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था की चमक शहरों और
कॉर्पोरेट्स तक सीमित रही, जबकि ग्रामीण क्षेत्र पिछड़ गए। यह सवाल उठाता है कि क्या यह वृद्धि वास्तव में सभी के लिए है
आम आदमी को कितना फायदा?
7.8% जीडीपी वृद्धि के बावजूद, आम आदमी – जैसे दिहाड़ी मजदूर, छोटे दुकानदार, या मध्यम वर्ग के कर्मचारी – को इसका
ज्यादा फायदा नहीं मिला। निजी उपभोग व्यय (लोगों का खाना, कपड़े, आदि पर खर्च) सिर्फ 7% बढ़ा, जो पिछले साल के
8.3% से कम है। इसका कारण है:
• बेरोजगारी: भारत में बेरोजगारी दर 8% के आसपास बनी हुई है। अनौपचारिक क्षेत्र, जहाँ 90% लोग काम करते हैं
(जैसे रेहड़ी वाले, मजदूर), में मजदूरी सिर्फ 2-3% बढ़ी।
• महंगाई: उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) 5-6% रहा। खाद्य पदार्थ जैसे दाल और सब्जियाँ 10-15% महंगे हुए।
इसके अतिरिक्त सब्जियों के दामों में भी वृद्धि देखी गई
• आय असमानता: जीडीपी का फायदा अमीर वर्ग (10% लोग) को गया, जिनकी आय 40% बढ़ी, जबकि गरीब और
मध्यम वर्ग को सिर्फ 6% आय वृद्धि मिली।
एक व्यक्ति , जिसकी मासिक कमाई 15,000 रुपये है, अब खाने-पीने की चीजों पर 20% ज्यादा खर्च कर रहा है।
उसकी बचत घटी, और जीडीपी की चमक उसकी जिंदगी में नहीं दिखी। यह दिखाता है कि आर्थिक वृद्धि का फायदा
समाज के उस वर्ग तक नहीं पहुंचा।
छोटे किसानों की व्यथा
कृषि क्षेत्र, जो 45% आबादी को रोजगार देता है, में 3.7% वृद्धि हुई, जो पिछले साल (1.5%) से बेहतर है,
लेकिन छोटे किसानों (80% किसान, जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम जमीन है) को इसका लाभ नहीं मिला।
कारण:
• प्राकृतिक आपदाएँ: महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे राज्यों में सूखे या बाढ़ ने फसलों को नुकसान पहुंचाया।
गेहूँ और चावल का उत्पादन बढ़ा, लेकिन सब्जियों में कमी रही।
• बाजार में कम दाम: न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ा, लेकिन निजी व्यापारियों ने कम दाम पर खरीदा।
जैसे, गेहूँ का एमएसपी 2400 रुपये/क्विंटल था, लेकिन बाजार में 2000 रुपये में बिका।
• बढ़ती लागत: खाद, बीज, और डीजल की कीमतें 20% बढ़ीं। एक छोटे किसान की लागत 10,000 रुपये
प्रति एकड़ से बढ़कर 12,000 रुपये हो गई, लेकिन आय नहीं बढ़ी।
• सीमित सरकारी मदद: पीएम किसान योजना से सालाना 6,000 रुपये मिलते हैं, लेकिन यह लागत की
तुलना में नाकाफी है।
उदाहरण के तौर पर, एक छोटा किसान, जिसके पास 1 हेक्टेयर जमीन है, साल में 50,000 रुपये कमाता है।
लेकिन लागत बढ़ने और दाम कम मिलने से उसकी वास्तविक आय घटी। जीडीपी की 3.7% वृद्धि कागजों तक
सीमित रही, और गाँवों की हकीकत नहीं बदली
कीमतें क्यों नहीं घटीं? व्यापारियों की चालाकियां
7.8% जीडीपी वृद्धि से ज्यादा सामान और सेवाएँ बनीं, जिससे कीमतें कम होनी चाहिए थीं। लेकिन ऐसा
नहीं हुआ। महंगाई का 1% हिस्सा नॉमिनल जीडीपी में शामिल था, और व्यापारियों ने चालाकियों से दाम
ऊँचे रखे:
• कृत्रिम कमी: व्यापारियों ने सामानों का स्टॉक जमा किया और 'कमी' का डर दिखाया। जिससे दाम
ऊंचाई पर पहुंचे।
• डायनामिक प्राइसिंग: ई-कॉमर्स कंपनियाँ (जैसे अमेजन, फ्लिपकार्ट) ने मांग देखकर कीमतें बढ़ाईं।
जैसे, सेल में स्मार्टफोन पहले सस्ते दिखाए, फिर दाम बढ़ाए।
• मार्केटिंग: ब्रांडेड सामान (जैसे दूध, साबुन) के दाम ऊँचे रखे गए, जबकि जेनेरिक सामान सस्ते
दिखाकर बिक्री बढ़ाई। 'लिमिटेड ऑफर' जैसे विज्ञापन आम थे।
• मध्यस्थों का खेल: व्यापारियों ने किसानों से सस्ते में खरीदा (जैसे टमाटर 20 रुपये/किलो) और खुदरा
में 80 रुपये/किलो बेचा।
ये चालाकियां मांग को बढ़ाती हैं और कीमतें ऊँची रखती हैं। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम कुछ हद तक
रोक लगाता है, लेकिन अनौपचारिक बाजार में यह कमजोर है। नतीजा? आम आदमी को सस्ता सामान नहीं मिला।
सरकार ने साख बचाने के लिए क्या किया?
सरकार ने 7.8% वृद्धि को 'विकसित भारत @2047' की दिशा में कदम बताया, लेकिन कुछ कदम साख बचाने
के लिए उठाए गए:
• आंकड़ों में हेरफेर: जीडीपी डिफ्लेटर को 1% दिखाया गया, जो वास्तव में 2-3% हो सकता था। इससे रियल
जीडीपी ज्यादा दिखी।
• सरकारी खर्च: इंफ्रास्ट्रक्चर (सड़क, रेल) पर 9.7% ज्यादा खर्च किया, जिससे जीडीपी बढ़ी। लेकिन इससे
मजदूरों को कम नौकरियाँ मिलीं, क्योंकि मशीनों का इस्तेमाल हुआ।
• योजनाओं का प्रचार: मुफ्त अनाज (पीएमजीकेजी) और आयुष्मान भारत को खूब प्रचारित किया, लेकिन ये
सब्सिडी से चल रही हैं, न कि जीडीपी वृद्धि से।
• निर्यात पर जोर: निर्यात 7% बढ़ा, जिससे चालू खाता घाटा 0.7% रहा। लेकिन इसका फायदा कॉर्पोरेट्स को
मिला।
• ग्रामीण कटौती: मनरेगा जैसे ग्रामीण योजनाओं में बजट कम किया, ताकि राजकोषीय घाटा 5.9% पर रहे।
ये कदम सरकार की साख तो बचाते हैं, लेकिन ग्रामीण और गरीब तबके की अनदेखी हुई।
7.8% जीडीपी वृद्धि भारत की आर्थिक ताकत दिखाती है, लेकिन यह चमक कागजों तक सीमित है। आम आदमी
महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रहा है, छोटे किसान बढ़ती लागत और कम दामों की मार झेल रहे हैं, व्यापारी
चालाकियों से कीमतें ऊँची रख रहे हैं, और सरकार आंकड़ों को चमकाकर अपनी साख बचा रही है। असली
विकास तब होगा, जब यह वृद्धि गाँवों, किसानों, और मजदूरों तक पहुंचे। इसके लिए जरूरी है: कृषि में निवेश,
महंगाई पर नियंत्रण, और रोजगार सृजन। भारत का सपना 'विकसित भारत' तभी साकार होगा, जब यह वृद्धि
समावेशी होगी।