बेटी दी —
जैसे कोई दान किया हो।
दामाद आया —
जैसे कोई राजा।
वो बोले —
तो सब सुनें।
वो रहें चुप —
तो कोई न पूछे कि
“क्या दामाद जी कुछ छिपा रहे हैं?”
उन्हें
इज़्ज़त चाहिए,
खाना गरम चाहिए,
पसंदीदा बात चाहिए,
बेटी की चुप्पी चाहिए,
और गलती कभी नहीं।
पर जब बात आए
भावनात्मक ज़िम्मेदारी,
सम्मान की बराबरी,
या बेटी की गरिमा की —
तो अचानक
दामाद जी सिर्फ “आदमी” रह जाते हैं।
ये मानसिकता क्या है?
• बेटी को अपनाना नहीं,
स्वामित्व जताना।
• प्यार जताना नहीं,
वश में रखना।
• साथ देना नहीं,
मायके को नीचा दिखाना।
जब ससुराल कुछ माँगे —
तो बोझ लगते हैं।
पर जब दहेज़ आया था —
तो हक़ लगता था।
“हमने लड़की ली है —
कोई एहसान नहीं किया!”
ये बात उनके मन में
कभी जन्म ही नहीं लेती।
जब बेटी रोए,
तो कहा जाता है —
“सहने की आदत डालो!”
जब दामाद नाराज़ हों,
तो कहा जाता है —
“बेटी को सुधारो!”
दामाद मानसिकता के 5 अंधेरे कोने:
1. बेटी को अधिकार नहीं — ‘दायित्व’ समझना।
2. मायके को सिर्फ गिफ्ट देने वाली मशीन समझना।
3. हर गलती पर बेटियों को दोषी ठहराना।
4. बेटी को ‘हमारे संस्कारों’ में ढालना, खुद कभी न बदलना।
5. ‘हम मर्द हैं’ — इस भ्रम में न्याय को कुचल देना।
और फिर पूछते हैं —
“घर क्यों टूटते हैं?”
क्योंकि
जहाँ बेटी से इंसान नहीं —
सेवा-मशीन बनने की उम्मीद की जाए,
वहाँ घर नहीं —
कब्रगाहें बनती हैं।
“दामाद” होना कोई उपाधि नहीं —
एक रिश्ते की परीक्षा है।
जहाँ पिता बनने का वादा किया था,
वहाँ स्वामी बनने का हक़ किसने दिया?

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




