मुकद्दर आजमाने की कोशिश में साथ मेरे साए बदनसीबी के अब इर्द गिर्द नजर आते हैं
अब राह में जो भी कांटे दिखे उन्हें चूम लेते हैं वो भी हमें गम के तरफदार नजर आते हैं
मै कहां जाऊं किस से अर्ज़ करूं चारों तरफ के मंजर भी दुख के तलबगार नजर आते हैं
इस शहर में कोई नहीं हमारी दर्द सुनने वाला हम भी अब सर झुकाए चुपचाप चले जाते हैं
नक्श ए दिल पे क्या बीती पूछो मत लहरें कितनी बन कर हमसफ़र हमें तन्हा कर जाते हैं
कुदरत के फैसले से दर बदर होना था क्या करूं बर्बादियों में अब हम ही शुमार हो जाते हैं
🙏मेरी इक नई खूबसूरत ग़ज़ल ज़श्न ए बर्बादी🙏