दिल की चार दीवारी में ही रमते रहे।
गुजारे लम्हों को याद कर हँसते रहे।।
मेरा सारा व्यक्तित्व मेरे स्तनों से जुड़ा।
माई नही बनी तब तक पिघलते रहे।।
रस अब भी मगर जिम्मेदारियाँ बढ़ी।
दूर जाते रहे और फिर पास आते रहे।।
नौकरी का दबाव मुझपर उनपर भी।
उलझनो में भी प्यार भरपूर करते रहे।।
हर दौर से बाहर निकल आए 'उपदेश'।
याद है काग़ज़ की कश्ती बहाते रहे।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद