तब तो वक्त कुछ और था, उसूल कुछ और थे..
ज़मीं की मिट्टी कुछ और थी, फूल कुछ और थे..।
जो मिलती हमें सज़ा वो, भुगत कर लिया करते..
हमारे जुर्म कुछ और थे, तो क़ुबूल कुछ और थे..।
ज़ख्म पर रखा मलहम का गाज, कई दफा मगर..
उनकी निगाहों में आए नहीं, वो शूल कुछ और थे..।
हर मर्ज़ की दवा का, जो करते थे सरेआम दावा..
उनके सफ़ाख़ाने के नुक्ते, माकूल कुछ और थे..l
उनके एहसानों के क़र्ज़, हमसे उतरे ही कहां थे..
उनकी तो मुहब्बत के भी, महसूल कुछ और थे..।