🌿 उफ़! ये तपिश...
उफ़! ये तपिश...
न तन की बस, मन की भी जलन है,
छाँव कहीं रूठ गई है,
धूप हर साँस में तपन बनकर घुलती है।
धरती की आँखें अब सूनी हैं,
नदियाँ प्यास से सहमी हुई सी हैं।
कभी जो पेड़ थे छाया हमारे,
अब कंक्रीट की दीवारें जमी हुई सी हैं।
पंखे चलें, पर हवा नहीं,
बादल छाएँ, पर बरसात नहीं।
ठंडक की बातें अब किताबों में हैं,
सच कहूँ — राहत की रातें अब साथ नहीं।
उफ़! ये तपिश...
सिर्फ़ मौसम की नहीं,
भीतर उठती बेचैनी की भी कहानी है।
शब्दों की, संबंधों की,
संवेदनाओं की भी चुपचाप वीरानी है।
कभी एक स्पर्श ठंडक देता था,
अब मोबाइल की स्क्रीन है,
जहाँ आँखें दिखती हैं, पर देखती नहीं।
उफ़! ये तपिश...
प्रकृति भी थकी है,
और हम भी।
चलो कुछ बोते हैं फिर से —
छाँव, संवेदना, और थोड़ी-सी शांति।
शायद अगली पीढ़ी
“उफ़” नहीं,
“आह!” कहकर मुस्करा सके…

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




