एक छोटी सी चाहत
चाहत नहीं हमें
कि कोई रोज़ अपना कुछ वक्त हमें भी दे
चाहत यह भी नहीं हमें
कि कोई हमसे रोज़ फ़ोन पर कुछ घंटे बात करे
नहीं ऐसी भी चाहत
कि सब हमारा जन्मदिन याद रखें
बेशक किसी से महीने,साल तलक मिलना भी न हो पाए
फिर भी जब मिलना हो उनसे
तो मिलकर कोई नयापन न लगे
वही पुराना अपनापन हो
जैसे यादों में रोज़ मिला करते थे
जैसे कभी ख्यालों से बाहर निकले ही नहीं
ऐसी होती है ख़ूबसूरती रिश्तों की
चाहे फिर दोस्ती की हो या हो अपनों की
जाने कहाँ खो गया यह अपनापन ?
कौनसा सुख मिल रहा है सबको अपनों से दूर होकर ?
क्या ?आख़िरी सांस तक लेकर जाएँगे यह स्वार्थी मन
बेशक भावनाओं के साथ जीना आसान नहीं पर भावनाओं के बिना भी जीवन खुशहाल नहीं ..
वन्दना सूद