तुमने मेरे प्रेम को बस मोह कह दिया
छोड़ने का भी क्या सुंदर ढंग कह दिया।
जिसमें जलती रही मैं रात-दिन तलक,
उसे इक पल में तुच्छ प्रमोद कह दिया।
जिसे मैंने साधना सा ओढ़ा हर पहर,
उसे तुमने आकर्षण-सा मोह कह दिया।
मैंने जिसे ईश्वर की तरह जिया,
तुमने उसे बस मेरा दोष कह दिया।
तुम्हारे लिए जो मैंने छोड़ा स्वयं को,
उस त्याग को भी तुमने शोध कह दिया।
मैं मौन हुई, तुम्हारी ख़ातिर हर बार,
तुमने मेरे मौन को शोक कह दिया।
मेरे आँसुओं में जो जलती थी प्यास,
उसे भी तुमने केवल रोग कह दिया।
अब क्या कहूँ — प्रेम का अंत यूँ हुआ,
तुमने मुझे “अतीत का बोध” कह दिया।
अब ‘शारदा’ ने ओढ़ लिया है मौन नया,
तू जिसे छोड़ गया — वो अब देवता नहीं रही।