इक़रार-ए-तन्हाई: ख़ुद में फ़ना हो गया
न मैं किसी से शिकवा करूँ, न कोई आ के पुकारता रहा हूँ, वो शोर जो भीतर कयामत था, उसे ख़ुद में उतारता रहा हूँ।
ये तन्हाई अज़ल (आरंभ) से थी, ये रिश्तों की तौहीन नहीं, ख़ुद के वजूद को हर रोज़ किसी और से सँवारता रहा हूँ।
अरे वो दर्द भी तो अब गुम हुआ, कि क्या तकलीफ़ है बाक़ी, मैं अश्कों (आँसू) की कीमत को बेहतर तरीक़े से जानता रहा हूँ।
मुझे अब सुकून की चाहत नहीं, न इश्क़ का इंतज़ार बाक़ी है, ख़ुद के ख़िलाफ़ मैं इक जंग था, जिसे बरसों से हारता रहा हूँ।
वो आवाज़ें जो सड़क पे थीं, वो ख़ूबसूरत तो थीं, मगर, मैं तर्क को क़ुबूल करके, दिल से फ़ासला बनाता रहा हूँ।
न शाम की तमन्ना रही, न सुबह का फ़ितूर (सनक) कोई, बस वो लम्हा जो गुज़र गया, उसे अंतिम पल मानता रहा हूँ।
यहाँ ख़ुदा नहीं है, न वो फ़रिश्ते हैं जो बातें करते थे, मैं ख़ुद को ख़ुद ही सलाम करता, ख़ुद को ही नज़र आता रहा हूँ।
ज़रूरी नहीं कि हर ज़िंदगी का मक़सद हो कोई बाहर, मैं ज़िंदगी को बस गुज़ारने की हद तक समझता रहा हूँ।
- ललित दाधीच

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



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