तुम मेरी आसक्ति बनी
जीवन हँसकर जी डाला
हर गम को ठंडा करके
छाछ की तरह पी डाला
तेरे जिस्म का इतना जादू
जैसे उस पर साक़ी डाला
हवन कुंड को पता नही क्या
उसमें गाढ़ा गाढ़ा घी डाला
रात में जमकर जश्न मानते
अधरों का रस पान किया
मीठा कम लगने पर 'उपदेश'
थोड़ा थोड़ा शहद भी डाला
उन बाहों में सारा जीवन
कुछ ही लम्हों में जी डाला
मदमस्त हो गए थे हम दोनों
ऐसे मतभेदों को सी डाला
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद