तुम जो समझे, वो मैं कभी थी ही नहीं,
कुछ सूरतें थीं, पर मैं वहीं थी ही नहीं।
दिल को ख़ुद अपने ही साए से डर लगा,
तुम क्या समझते, मेरी गहराई थी ही नहीं।
तेरे सवालों में जो शक की लहर थी,
उसके जवाब में मेरी सच्चाई थी ही नहीं।
मैंने जो हँस के सहा, वो तू जान न सका,
लब पे शिकवा था, पर सुनवाई थी ही नहीं।
तूने जो रंग भरे मेरे नाम के साथ,
वो मेरी रूह की परछाई थी ही नहीं।
शारदा’ ये फ़साना सुनते-सुनते थक गई,
मगर जो मैं थी, वो कहानी में थी ही नहीं।