पीर पर्वत श्रृखंला सी ,
घाव गहरी घाटियाँ हैं !
टूटकर फिर ना ये जुडती ,
लौह की ना बेड़ियाँ हैं!
खींचकर लायी न जाती,
मन की ये कुछ दूरियां हैं !
कर यतन हम हार बैठे ,
अब भली मजबूरियां हैं !
एक आशा फिर से जागी ,
गीत गा कर मुस्कुरा कर!
की कभी हिमपात होगा,
रवि का पावन ताप होगा !
कर्म दीपक जल उठेगा,
ईश भी कुछ तो गढ़ेगा !
भाग्य से निर्माण होगा,
या कोई उत्पात होगा !
अब वो ऊंची श्रृंखलायें,
बीच पाले के पड़ेगी !
गर्व से जो थी गरजती,
वार वर्षण का सहेंगी!
काट कर तिल तिल स्वयं को,
घाटियों को खुद भरेगी!
कलकलाति श्रोत सरिता ,
दिल से उनके बह चलेगी !
आंसुओं से जल उठेगी ,
मिलन को बेताब होगी !
भागीरथ तेरी प्रतीक्षा ,
फिर कही ऐसी फलेगी !
अब की वो खुद ही चलेगी ,
रास्ते भी ढूंढ लेंगी!
दूरियो को नाप लेगी ,
बंधनो को तोड़ देगी !
खीचकर तो ला न पाते ,
प्रेम में खुद से मिलेगी !
आज फिर दो बिंदु होगे,
दूरियां जाने क्या होगी !
पर कोई अब बात होगी ,
जो हमें फिर जोड़ देगी !
खुद भरेगी घाव आकर ,
पीर सदियों की हरेगी !
-तेज प्रकाश पांडे