फादर्स डे - अभिषेक मिश्रा 'बलिया' की विशेष रचना "पिता की परछाईं"
"पिता की परछाईं" एक बेहद संवेदनशील और भावनाओं से ओत-प्रोत कविता है, जो पिता के उस मौन और निस्वार्थ प्रेम को उजागर करती है, जिसे अक्सर शब्द नहीं मिलते। यह कविता केवल एक संतान की अपने पिता के प्रति कृतज्ञता नहीं, बल्कि उस जीवन की स्वीकारोक्ति है जो पिता ने चुपचाप संतान के लिए जिया। कवि अभिषेक मिश्रा ने इसमें एक ऐसे साए की कल्पना नहीं की है जो केवल साथ चलता है, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति की जीवंत छवि प्रस्तुत की है जो खुद धूप में रहा, ताकि उसके बच्चे छांव में रह सकें। कविता में पिता की संघर्षमयी चुप्पी, उसकी त्यागभरी रातें, और हर उस क्षण का चित्रण है जब उन्होंने अपनी खुशी को हमारी हँसी में ढाल दिया। यह रचना पाठकों को झकझोरती है, रुलाती है और यह याद दिलाती है कि जब हम अपने जीवन में सफल हो जाते हैं, तब भी कहीं न कहीं एक चेहरा हमारे पीछे खड़ा होता है — बिना किसी तालियों के, पर सबसे बड़ा किरदार निभाते हुए। यह कविता पिता को उस स्थान पर प्रतिष्ठित करती है, जहाँ समाज प्रायः चुप रहता है — पर कवि ने उसे आवाज़ दी है, पहचान दी है, और सबसे बढ़कर, उसे कविता में अमर कर दिया है।
इस विशेष रचना को Blue Star Publications द्वारा प्रकाशित "Ink From Father's Soul — a Father’s Day Special Anthology" में चयनित किया गया है, जो World Record Book में भी पंजीकृत है। यह न केवल कवि के लिए सम्मान की बात है, बल्कि इस कविता के माध्यम से हर उस पिता को एक श्रद्धांजलि है, जिनकी कहानियाँ अक्सर मंच से दूर रह जाती हैं, लेकिन जीवन के हर कोने में उनकी परछाईं बनी रहती है।
इतना ही नहीं, इस कविता से प्रेरित होकर एक भावनात्मक गाना भी लिखा गया है, जिसे खुद कवि ने स्वरबद्ध किया है और यह "Baagi Baani" यूट्यूब चैनल से आधिकारिक रूप से रिलीज़ हुआ है। गीत और कविता दोनों मिलकर एक ऐसी भावनात्मक यात्रा पर ले जाते हैं, जहाँ हर पाठक और श्रोता को अपने जीवन का कोई “पापा” ज़रूर याद आ जाता है।
यह रचना न केवल Father's Day के लिए एक विशेष श्रद्धांजलि है, बल्कि समाज को यह याद दिलाने का प्रयास भी है कि पिता भी रोते हैं—बस उनकी आँखे बारिश की तरह नहीं बरसतीं, बल्कि भीतर ही भीतर सिसकती रहती हैं।
प्रस्तुत है कविता - "पिता कि परछाई":
पिता कोई नाम नहीं, एक एहसास है,
जो परछाईं बन हर पल मेरे पास है।
बचपन में जब पाँव लड़खड़ाए थे,
वो थाम के उँगली चलाते थे।
मैं हँसूं यही कामना लेकर,
ज़ख़्म अपने मन में छुपाते थे।।
कभी सिर पे छत, कभी गीतों में,
हर रूप में साया बन जाते थे।
मैं न गिरूं, यही सोच-सोचकर,
अपने घावों को सह जाते थे।।
पढ़ाई की रातों में नींद नहीं थी
जब पन्नों संग मैं लड़ता था।
चाय की हल्की भाप लिए,
हर सवाल में संग मुस्काते थे।।
मेरी किताबों में जो उजाला था,
उसमें उनकी थकन समाई थी।
मैं जो कुछ भी बन पाया आज,
वो बस उनकी छांव से आई थी।।
जब नौकरी की ओर मैं बढ़ा,
वो बैग मेरा खुद उठाते थे।
भीड़ में पीछे रहते हुए भी,
मुझे सबसे आगे बतलाते थे।।
मेरे नए शहर की रौशनी में,
उनकी आंखों का पानी था।
मैं जो खड़ा था मंचों पर,
वो नीचे बैठा कहानी था।।
जब घर के फ़ैसले भारी लगे,
वो चुपचाप रास्ते दिखाते थे।
न भाषण, न कोई तर्क दिए,
पर मौन में अर्थ समझाते थे।।
उनकी नज़रों का बस एक इशारा,
जैसे ब्रह्म वाक्य बन जाता था।
मैं जो उलझा करता निर्णयों में,
वो उत्तर बनकर आ जाता था।।
आज भी जब जीवन थकता है,
वो दूर कहीं छांव बन जाते हैं।
मैं काँपूं जब भी समय मार से,
वो मन को साहस दिलाते हैं।।
अब कमज़ोर हैं, पर चट्टान से,
हर मौन में शब्द दे जाते हैं।
पिता की परछाईं आज भी मेरे,
हर दिन के संग चल जाते हैं।।
एक परछाईं अब भी साथ चलती है ,
ना आवाज़ करती, ना थकती है।
मैं जब झुकता हूँ जीवन से,
वो मेरी पीठ सहला देती है।।
ना पूछती है कुछ, ना टोकती है,
बस मौन में मन समझा देती है।
पिता अब भी मेरे साथ खड़े हैं,
हर दिन मेरी सांसों में बहती है।।
लेखक: अभिषेक मिश्रा