तारीफ़ को तुम्हारे लफ़्ज़ भी तो नहीं मिलते,
तुम्हें आफ़रीन कहूं तो चलेगा क्या?
बड़ा बेचैन सा रहता हूं आजकल देख लूं तुम्हें तो राहत आती है,
तुम्हें दिल का सुकून कहूं तो चलेगा क्या?
हुस्नमंदी की बात नहीं यहां सभी रईस हैं,
तुम्हें हीरे की बस्ती का कोहिनूर कहूं तो चलेगा क्या?
देखे हैं चेहरे कई बड़े गौर से हमने इस जहां की तो नहीं लगती तुम,
तुम्हें जन्नत से उतरी कोई हूर कहूं तो चलेगा क्या?
बात यही नहीं कि तुम हूर हो,
तुम्हें उन हूरों में भी मशहूर कहूं तो चलेगा क्या?
तुम हूर हो, कोहिनूर हो, मशहूर हो या जो भी हो तुम,
तुम्हें मैं अपना गुरूर कहूं तो चलेगा क्या?
तारीफ को तुम्हारे लफ्ज़ भी तो नहीं मिलते,
तुम्हें आफ़रीन कहूं तो चलेगा क्या..?
---कमलकांत घिरी ✍️