गले लगने के साथ-साथ रवानी बहने लगती है।
जुबाँ पीछे निगाह पहले कहानी कहने लगती है।।
चेहरे पर मुस्कराहट की आभा जगमगाती जब।
मन के आँसू छलकने से बरसात लगने लगती है।।
अब हँसकर टालना बाकी रहा मनमीत बाहों में।
रूहानियत दोनों की किस तरह खिलने लगती है।।
होले-होले मन की पर्तें हटने को मचलती 'उपदेश'।
अन्तरंग में लीन होते ही पलक झपकने लगती है।।
साँसों की गर्माहट से जिस्म पिघलने की बारी थी।
दुख जैसे हिरन हुए सुख की धारा बहने लगती है।।
- उपदेश कुमार शाक्यावार 'उपदेश'
गाजियाबाद