वक्त इन दिनों, कुछ बहरूपिया सा नज़र आया..
मुझे अज़नबी सा लगा, ये क्या रूप धर आया..।
कुछ भी निशानियां वो नहीं, जो बनाई थी हमने..
सुकूँ न था चेहरे पे, हर जगह इक दर्द उभर आया..।
वो था कुछ भटका हुआ, कुछ अनमना भी था..
ये क्या कि सुबह का भुला शाम को भी न घर आया..।
कश्तियों की नाराज़गी का, लहरों पर तो कुछ असर न था..
मगर ये क्या कि, तूफ़ाँ की शक्ल में मिलने को समन्दर आया..।
मैं तो दिल की इस नाफ़रमानी से बेज़ा हैराँ हूँ दोस्तों..
ये जाने कैसे ज़माने की हर एक रस्मो रिवाज मुकर आया..।
पवन कुमार" क्षितिज"