शिव —
ना जटाधारी हैं,
ना केवल कैलासवासी…
शिव — एक विसर्जन हैं!
जो भी उनसे टकराया,
वो अपने ‘मैं’ से मुक्त हुआ।
शिव कोई मूर्ति नहीं…
शिव वह शून्य हैं,
जहाँ सब कुछ समा जाता है —
और फिर शुद्ध हो जाता है।
वो नीलकंठ हैं —
ज़हर पीते हैं,
ताकि तुम मधुर रहो।
शिव कोई धर्म नहीं हैं…
शिव वह उन्माद हैं,
जहाँ चेतना अपना नाम खो बैठती है।
वो श्मशान में नाचते हैं,
ताकि तुम्हारी मृत्यु में भी
कोई भय न बचे।
शिव रौद्र हैं,
क्योंकि करुणा की सीमा जब पार कर दी जाती है —
तो रौद्र जन्म लेता है।
वो तांडव करते हैं —
क्योंकि सृष्टि जब सीमा भूल जाती है,
तो संहार ही पुनर्जन्म होता है।
शिव स्थिर हैं —
परंतु वही
सबसे अधिक चंचल ऊर्जा के वाहक हैं।
वो योग हैं —
जहाँ सांस रुकती नहीं,
बल्कि स्वरूप बदल जाती है।
शिव कोई व्रत नहीं…
कोई आरती नहीं…
कोई रुद्राभिषेक नहीं…
शिव वह मौन हैं —
जहाँ प्रार्थना जलकर राख हो जाती है।
तुम शिव को नहीं पा सकते…
तुम्हें शिव में खो जाना पड़ता है।
तुम्हें गिरना होगा…
टूटना होगा…
तपना होगा —
तब कहीं जाकर वो मौन तुम्हें ग्रहण करेगा।
शिव वह हैं
जो अग्नि के मध्य बैठकर
जल से शांत रहते हैं।
वो वीतरागी हैं —
पर प्रेम की पराकाष्ठा भी वही हैं।
वो काम को जला सकते हैं,
पर पार्वती को अपनाते हैं —
क्योंकि शिव के लिए
प्रेम — भोग नहीं,
योग होता है।
शिव कौन हैं?
शिव वो हैं —
जो तुम्हें तुमसे मिटाकर,
तुम्हारे भीतर ‘तू ही तू’ भर देते हैं।
इसलिए, ओ साधक…
अगर शिव को पाना है,
तो खुद को जलाना पड़ेगा!
हर भ्रम, हर मोह, हर डर को भस्म करना पड़ेगा!
क्योंकि शिव —
सिर्फ वो हैं,
जो शून्य में भी पूर्ण हैं…
और पूर्ण में भी मुक्त।
शिव कोई नहीं है —
बस वो पल है
जब मैंने सब कुछ खो दिया
और फिर भी शांत रही।
मैंने शिव को नहीं पुकारा…
मैंने बस सहा —
और वो आ गए।”

The Flower of Word by Vedvyas Mishra
The novel 'Nevla' (The Mongoose) by Vedvyas Mishra



The Flower of Word by Vedvyas Mishra




