अपने अंदर तुम इतने गम लेकर जी लेते हो कैसे।
शायद हो तुम दुख के समुन्दर जो रह लेते हो ऐसे।।1।।
मेरी आमद से तुम्हारा हाल होता था दीवानों के जैसे।
एक नजर भी ना उठाई तुमने इतनी फितरत बदलते हो कैसे।।2।।
तुम्हें देखकर समझना हुआ है बड़ा मुश्किल मेरा।
पुराने कागज पर लिखी आधी अधूरी कोई ग़ज़ल हो जैसे।।3।।
इतनी बेतरतीब ज़िन्दगी कब से तुम जीने लगे हो।
इतने गम पाकर भी तुम ऐसे मुस्कुरा लेते हो कैसे।।4।।
हर शाम ही होती है रंगीन उसकी रोज ही महफ़िल में।
जाकर तो कोई पूँछों उससे लाते कहाँ से हो इतने पैसे।।5।।
वह बढ़ा चढ़ा कर पेश करता है हमेशा अपनी हस्ती।
हर सच को झूठ, झूठ को सच बना देता है जाने वो कैसे।।6।।
जाकर पता लगाओ वह हर काम ही ऐसे क्यों कर रहा है।
गलत काम करना शायद उसकी कोई मजबूरी हो जैसे।।7।।
ताज मोहम्मद
लखनऊ